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संस्तार पौरुषी-सूत्र
जाह संथारं, बाहुबहाणेण वामपासेणं ।
कुक्कुडि-पायपसारण
अतरंत पमज्ज भूमिं ॥ २ ॥
संकोsय संडासा,
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दव्वाई - उपयोगं,
उच्चते काय - पडिलेहा ।
३४३
ऊसासनिरु भणालोए ॥ ३ ॥
भावार्थ
[ संथारा करने की विधि ] मुझको संथारा की आज्ञा दीजिए । [ संथारा की आज्ञा देते हुए गुरु उसकी विधि का उपदेश देते हैं ] मुनि बाईं भुजा को तकिया बनाकर बाईं करवट से सोचे | और मुर्गी की तरह ऊँचे पाँव करके सोने में यदि श्रसमर्थ हो तो भूमि का प्रमार्जन कर उस पर पाँव रक्खे |
दोनों घुटनों को सिकोड़ कर सोचे । करवट बदलते समय शरीर की प्रतिलेखना करे । जागने के लिए ' द्रव्यादि के द्वारा श्रात्मा का
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१ - मैं वस्ततुः कौन हूँ और कैसा हूँ ? इस प्रश्न का चिन्तन करना द्रव्य चिन्तन है | तत्त्वतः मेरा क्षेत्र कौनसा है ? यह विचार करना क्षेत्रचिन्तन है । मैं प्रमाद रूप रात्रि में सोया पड़ा हूँ अथवा अप्रमत्त भावरूप दिन में जागृत हूँ ? यह चिन्तन कालचिन्तन है । मुझे इस समय लघुशंका आदि द्रव्य बाधा और रागद्वेष आदि भाववाधा कितनी है ? यह विचार करना भावचिन्तन है '