________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
: ३ :
संस्तार- पौरुषी-सूत्र
[ जैनधर्म की निवृत्तिप्रधान साधना में 'संथार ' -- 'संस्तारक' का चहुत बड़ा महत्त्व है । जीवनभर की अच्छी-बुरी हलचलों का लेखा लगाकर अन्तिम समय समस्त दुष्प्रवृत्तियों का त्याग करना; मन, वाणी और शरीर को संयम में रखना; ममता से मन को हटाकर उसे प्रभुस्मरण एवं श्रात्मचिन्तन में लगाना; आहार पानी तथा अन्य सब उपाधियां का त्याग कर आत्मा को निर्द्वन्द्व एवं निस्पृह बनाना; संथारा का श्रादर्श है । यहाँ मृत्यु के आगे गिड़गिड़ाते रहना, रोते पीटते रहना, बचने के प्रयत्न में ग्रंट-संट पापकारी क्रियाएँ करना, अभिमत नहीं है । जैनधर्म का आदर्श है --- जब तक जीयो, विवेक पूर्वर्क आनन्द से जीओो । और जब मृत्यु ा जाए तो विवेकपूर्वक आनन्द से ही मरो । मृत्यु तुम्हें रोते हुओं को घसीट कर ले जाय, यह मानवजीवन का आदर्श नहीं है । मानवजीवन का आदर्श है - संयम की साधना के लिए अधिक से अधिक जीने का यथासाध्य प्रयत्न करो | और जब देखो कि जीवन की लालसा में हमें अपने धर्म से ही च्युत होना पड़ रहा है, संयम की साधना से ही लक्ष्य भ्रष्ट होना पड़ रहा है, तो अपने धर्म पर, अपने संयम पर दृढ़ रहो और समाधिमरण के स्वागतार्थं हँसते-हँसते तैयार हो जाओ । जीवन ही कोई बड़ी चीज़ नहीं है । जीवन के बाद मृत्यु भी कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । मृत्यु को किसी तरह टाला तो
I
-
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal