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अभक्तार्थ-उपवास-सूत्र
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उपवास में 'अट्टममत्तं अभत्तट्ट' पढ़ना चाहिए। इस प्रकार उपवासकी संख्या को दूना करके उसमें दो और मिलाने से जो संख्या पाए उतने 'भत्त' कहना चाहिए । जैसे चार उपवास के प्रत्याख्यान में 'दसमभत्त' और पाँच उपवास के प्रत्याख्यान में 'बारहमत' इत्यादि ।
अन्तकृद् दशांग आदि सूत्रों में तीस दिन के व्रत को 'सटिभत्त' कहा है। इस पर से कुछ विद्वानों को अाशंका है कि ये संज्ञाएँ उपर्युक्त कण्डिका के अर्थ को घोतित नहीं करतीं ? ये केवल प्राचीन रूढ़ संज्ञाएँ ही हैं । इस लिए श्री गुण विनयगणी धर्मसागरीय उत्सूत्र खण्डन में लिखते हैं-'प्रथमदिने चतुर्थमिति संज्ञा, द्वितीयेऽह्नि षष्ठं, तृतीयेऽह्नि अष्टममित्यादि ।'
चउव्विहाहार और तिविहाहार के रूप में उपवास दो प्रकार का होता है । चउबिहाहार का पाठ ऊपर मूलसूत्र में दिया है । सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक चारों प्राहारों का त्याग करना, चउबिहाहार अभत्तट्ठ कहलाता है । तिविहाहार उपवास करना हो तो पानी का आगार रखकर शेष तीन श्राहारों का त्याग करना चाहिए । तिविहाहार उपवास करते समय 'तिविहं पि प्राहारं-असणं, खाइम, साइमं ।' पाठ कहना चाहिए।
कितने ही प्राचार्यों का मत है कि-'पारिद्वावणियागारेणं' का आगार तिविहाहार उपवास में ही होता है, चउविहाहार उपवास में नहीं । अतः चउविहाहार उपवास में 'पारिट्ठावणि यागारेणं' नहीं बोलना चाहिए।
अचार्य जिनदास लिखते हैं—'जति तिविहस्स पश्चक्खाति विगिंचरिणयं कप्पति, जदि चविहस्स पाणगं च नत्थि न वति ।'
-आवश्यक चूर्णि । प्राचार्य नमि लिखते हैं--'चतुर्विधाहार प्रत्याख्याने पारिष्टापनिका न कल्पते ।'--प्रतिक्रमण सूत्र विवृत्ति ।
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