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श्रम-सूत्र
प्रतिक्रमण की समाति पर प्रस्तुत क्षामणासूत्र पढ़ते समय जब साधक दोनों हाथ जोड़कर क्षमा याचना करने के लिए खड़ा होता है, तब कितना सुन्दर शान्ति का दृश्य होता है ? अपने चारों ओर अवस्थित संसार के समस्त छोटे-बड़े प्राणियों से गद्गद् होकर क्षमा माँगता हुया साधक, वस्तुतः मानवता की सर्वोत्कृष्ट भूमिका पर पहुँच जाता है। कितनी नम्रता है ? गुरु जनों से तो क्षमा माँगता ही है, किन्तु अपने से छोटे शिष्य आदि से भी क्षमायाचना करता है । उस समय उसके हृदय से छोटे-बड़े का भेद विलुप्त हो जाता है और अखिल विश्व मित्र के रूप में आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है। इस प्रकार क्षमायाचना की साधना से अपराधों के सस्कार जाते रहते हैं, और मन पापों के भार से सहसा हलका हो जाता है । क्षमा से हमारे अहंभाव का नाश होता है और हृदय में उदार भावना का प्राध्यात्मिक पुष्प खिल उठता है । अपने हृदय को निर्वैर बना लेना ही क्षमापना का उद्देश्य है । हमारी क्षमा में विश्वमैत्री का अादर्श रहा हुआ है। और यह विश्व-मैत्री हा जैन-धर्म का प्राण है।
करुणामूर्ति भगवान् महावीर, क्षमा पर अत्यधिक बल देते हैं । भगवान् की क्षमा का श्रादर्श है कि तुमने दूसरे के हृदय को किसी भी प्रकार की चोट पहुँचाई हो, दूसरे के हृदय में किसी भी प्रकार की कलुषता उत्पन्न की हो, अथवा दूसरे की अोर से अपने हृदय में वैरविरोध एवं कलुषता के भाव पैदा किए हों, तो उक्त वैर-विरोध तथा कलुषता को क्षमा के आदान प्रदान द्वारा तुरन्त धोकर साफ कर दो। वैरविरोध की कालिमा को जरा-सी देर के लिए भी हृदय में न रहने दो। बृहत्कल्पसूत्र में भगवान महावीर का श्रमसंघ के प्रति गंभीर एवं ममस्वी सन्देश है कि-''यदि श्रमणसौंध में किसी से किसी प्रकार का कलह हो जाय तो जब तक परस्पर क्षमा न माँग ले तब तक अाहार पानी लेने नहीं जा सकते, शौच नहीं जा सकते, स्वाध्याय भी नहीं कर सकते।" क्षमा के लिए कितना कठोर अनुशासन है । अाज के कलह-प्रिय साधु,
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