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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२६१ बारह आधर्त - प्रस्तुत पाठ में आवर्त-क्रिया विशेष ध्यान देने योग्य है । जिस प्रकार वैदिक मंत्रों में स्वर तथा हस्त-सञ्चालन का ध्यान रखा जाता है, उसी प्रकार इस पाठ में भी आवर्त के रूप में स्वर तथा चरण स्पर्श के लिए होने वाली हस्त-संचालन क्रिया के सम्बन्ध में लक्ष्य दिया गया है । स्वर के द्वारा वाणी में एक विशेष प्रकार का प्रोज एवं माधुर्य पैदा हो जाता है, जो अन्तःकरण पर अपना विशेष प्रभाव डालता है। ___ यावर्त के सम्बन्ध में एक बात और है । जिस प्रकार वर और कन्या अग्नि की प्रदक्षिणा करने के बाद पारस्परिक कर्तव्य-निर्वाह के लिए श्राबद्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार आवर्त-क्रिया गुरु और शिष्य को एकदूसरे के प्रति कर्तव्य बन्धन में बाँध देती है । आवर्तन करते समय शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों का स्पर्श करने के बाद दोनों अंजलिबद्ध हाथों को अपने मस्तक पर लगाता है; इसका हार्द है कि वह गुरुदेव की अाज्ञायों को सदैव मस्तक पर वहन करने के लिए कृतप्रतिज्ञ है।
प्रथम के तीन आवर्त-'अहो'-'कार्य'-'काय'-इस प्रकार दो-दो अक्षरों से पूरे होते हैं। कमलमुद्रा से अंजलिबद्ध दोनों हाथों से गुरुचरणों को स्पर्श करते हुए मन्द स्वर से 'अ' अक्षर कहना, तत्पश्चात् अंजलिबद्ध हाथों को मस्तक पर लगाते हुए उच्च स्वर से 'हो' अक्षर कहना, यह पहला आवर्तन है। इसी प्रकार 'का....यं' और 'का....य' के शेष दो प्रावर्तन भी किए जाते हैं।
अगले तीन आवर्त-'जत्ताभे'-'जवणि'-'जंच भे'-इस प्रकार
१ 'सूत्राभिधानगर्भाः काय-व्यापारविशेषाः'-प्राचार्य हरिभद्र, श्रावश्यक वृत्ति ।
'सूत्र-गर्भा गुरुचरणकमलन्यस्तहस्तशिरः स्थापनरूपाः --प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, वन्दनक द्वार ।
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