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श्रमण-सूत्र
अतीत जन्मों में जो भूल हुई हो, अवहेलना का भाव रहा हो, उस सबकी क्षमा याचना करता हूँ।' ___मूल में 'सव्वकालिया' शब्द है, जिसका अर्थ है सब काल में होने वाली अाशातना । प्राचार्य जिनदास सर्वकाल से समस्त भूतकाल “ग्रहण करते हैं-'सव्वकाले भवा सव्वकालिगी, पक्खिका, चातुम्मासिया, संवत्सरिया, इह भवे अण्णेसु वा अतीतेसु भवग्गहणेसु सव्वमतीतद्धाकाले। ____ आचार्य हरिभद्र ‘सर्वकाल' से अतीत, अनागत और वर्तमान इस प्रकार त्रिकाल का ग्रहण करते हैं-'अधुनेहभवान्यभवगताऽतीतानागतकालसंग्रहार्थमाह, सर्वकालेन अतीतादिना निवृत्ता सार्वकालिकी तया ।'
यह विनय धर्म का कितना महान् विराट रूप है । जैन संस्कृति की प्रत्येक साधना क्षुद्र से महान होती हुई अन्त में अनन्त का रूप ले लेती है। श्राप देख सकते हैं, गुरुदेव के चरणों में की जानेवाली अपराधक्षामणा भी दैवसिक एवं रात्रिक से महान् होती हुई अन्त में सार्वकालिकी हो जाती है। केवल वर्तमान ही नहीं, किन्तु अनन्त भूत और अनन्त भविष्य काल के लिए भी अपराध-क्षमापना करना, साधक का नित्यप्रति किया जाने वाला आवश्यक कर्तव्य है ।।
अनागत-अाशातना के सम्बन्ध में प्रश्न है कि भविष्यकाल तो अभी आगे आने वाला है, अतः तत्सम्बन्धी आशातना कैसे हो सकती है ? समाधान है कि गुरुदेव के लिए एवं गुरुदेव की आज्ञा के लिए भविष्य में किसी प्रकार की भी अवहेलना का भाव रखना, संकल्प करना, अनागत अाशातना है । भूतकाल की भूलों का पश्चात्ताप करो और भविष्य में भूले न होने देने के लिए सदा कृत-सकल्प रहो, यह है साधक जीवन के लिए अमर सन्देश, जो सार्वकालिको पद के द्वारा अभिव्यंजित है।
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