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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२६७ स्पर्श करता हुअा 'ज' अक्षर कहे, फिर हाथों को हटाकर हृदय के पास लाता हुअा 'त्ता' अक्षर कहे, और अन्त में दशों अँगुलियों से अपने मस्तक को स्पर्श करता हुअा 'भे' अक्षर कहे । इस प्रकार चौथा प्रावर्त होता है। इसी प्रकार शेष दो आवर्त भी 'ज व णि' और 'जं च भे' के समझ लेने चाहिएँ। ।
ये छह श्रावर्त अावश्यक प्रथम खमासण के हैं। इसी प्रकार दूसरे खमासण के भी छह आवर्त आवश्यक होते हैं । एक निष्क्रमण
बारह आवर्त करने के बाद प्रथम दोनों हाथों से और पश्चात् मस्तक से गुरु चरणों का स्पर्श करे तथा 'खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कम' का पाठ कहे। इसके अनन्तर खड़े होकर रजोहरण से अपने पीछे की भूमि का प्रमार्जन करता हुआ, गुरुदेव के मुखकमल पर दृष्टि लगाए, मुख से 'पावस्सियाए' कहता हुश्रा, उल्टे पैरों वापस लौट कर अवग्रह से बाहर निकले । यह निष्क्रमण आवश्यक है।
अवग्रह से बाहर गुरुदेव की ओर मुख कर के पैरों से जिन-मुद्रा का और हाथों से योग-मुद्रा का अभिनय कर के खड़ा होना चाहिए । पश्चात् पडिक्कमामि से लेकर सपूर्ण खमासमणो पढ़ना चाहिए । तीन गुप्ति
जब शिष्य वन्दन करने के लिए अवग्रह में प्रवेश करता है, तब 'निसीहि' कहता है। उसका भाव यह है कि अब मैं मन, वचन और काय की अन्य सब प्रवृत्तियों का निषेध करता हूँ एवं तीनों योगों को एक मात्र वन्दन-क्रिया में ही नियुक्त करता हूँ। यह एकाग्र भाव की सूचना है, जो तीन गुप्तियों के आवश्यक का निदर्शन है ।
__ मनोगुप्ति आवश्यक यह है कि मन में से अन्य सब सकल्मों को निकाल कर उसमें एकमात्र वंदना का मधुर भाव ही रहना चाहिए । बिखरे मन से वन्दन करने पर कम निर्जरा नहीं होती।
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