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श्रमण-सूत्र
अवग्रह में प्रवेश करना चाहिए। बाद में रजोहरण से भूमि प्रमार्जन कर, गुरुदेव के पास गोदोहिका ( उकडू ) श्रासन से बैठकर, प्रथम के तीन श्रावर्त 'अहो, कार्य, काय' पूर्वोक्त विधि के अनुसार करके 'फार्स' कहते हुए गुरु चरणों में मस्तक लगाना चाहिए ।
तदनन्तर 'खमणिजो भे किलामो' के द्वारा चरण स्पर्श करते समय गुरुदेव को जो बाधा होती है, उसकी क्षमा माँगी जाती है । पश्चात् 'अप्प किलंताणं बहु सुभेण भे दिवसो वइकतो' कहकर दिन सम्बन्धी कुशल क्षेम पूछा जाता है । अनन्तर गुरुदेव भी ' तथा ' कह कर अपने कुशल क्षेम की सूचना देते हैं और फिर उचित शब्दों में शिष्य का कुशल क्षेम भी पूछते हैं ।
तदनन्तर शिष्य 'ज त्ता भे' 'ज व शि' 'ज्जं च भे'- इन तीन श्रावत की क्रिया करे एवं संयम यात्रा तथा इन्द्रिय सम्बन्धी और मनः सम्बन्धी शान्ति पूछे । उत्तर में गुरुदेव भी 'तुभं पि वह' कहकर शिष्य से उसकी यात्रा और यापनीय सम्बन्धी सुख शान्ति पूछें ।
तत्पश्चात् मस्तक से गुरु चरणों का स्पर्श करके 'ख मेमि खमासमणो देवसियं वइक्कमं' कह कर शिष्य विनम्र भाव से दिन- सम्बन्धी अपने अपराधों की क्षमा माँगता है। उत्तर में गुरु भी 'अहमपि क्षमयामि' कह कर शिष्य से स्वकृत भूलों की क्षमा माँगते हैं । क्षामणा करते समय शिष्य और गुरु के साम्य प्रधान सम्मेलन में क्षमा के कारण विनम्र हुए दोनों मस्तक कितने भव्य प्रतीत होते हैं ? ज़रा भावुकता को सक्रिय कीजिए । वन्दन प्रक्रिया में प्रस्तुत शिरोनमन आवश्यक का भद्रबाहु श्रु त केवलो बहुत सुन्दर वर्णन करते हैं ।
इसके बाद 'आवस्सियाए' कहते हुए श्रवग्रह से बाहर याना चाहिए ।
ग्रह से बाहर लौट कर - 'पडिक्कमामि' से लेकर 'अप्पाशं वोसिरानि' तक का सम्पूर्ण पाठ पढ़ कर प्रथम स्वमासमणो पूर्ण करना चाहिए ।
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