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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२७१ कोहाए, माणाए, मायाए, लोभाए, सव्वकालियाए, सव्वमिच्छोक्याराए, सव्वधम्माइक्कमणाए, अासायणाएजो मे अइयारो करो, तस्स खमासमणो! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि !
शब्दार्थ [वन्दना की आज्ञा ] अहोकायं = (आपके) चरणों का खमासमणो= हे क्षमाश्रमण ! कायसं फास = अपनी काय से जावणिजाए = यथा शक्रियुक्त
मस्तक से या हाथ निसीहियाए = पाप क्रिया से निवृत्त
से स्पर्श करता हूँ] हुए शरीर से भे= मेरे छूने से) श्रापको वंदिउँ%=(श्रापको) वन्दना करना किलामो= जो बाधा हुई, वह इच्छामि = चाहता हूँ
खमणिजो-चन्तव्य-क्षमा के योग्य है [अवग्रह प्रवेश की श्राज्ञा] [कायिक कुशल की पृच्छा] मे= (अतः) मुझको
अप्पकिलंताणं = अल्प ग्लान वाले मिउग्गह = परिमित अवग्रह की, भे-आपश्री का
अर्थात् अवग्रह में कुछ बहुसुभेण = बहुत श्रानन्द से
सीमा तक प्रवेश करने की दिवसो = श्राज का दिन अणुजाणह = आज्ञा दीजिए वइक्कतो = बीता? [गुरु की अोर से आज्ञा होने पर [सयमयात्रा की पृच्छा ] गुरु के समीप बैठकर
भे= श्रापकी निसीहि = अशुभ क्रिया को रोककर जत्ता = संयमयात्रा (निर्बाध है ?)
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