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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
श्राय- प्पमाणमित्तो, चउदिसिं होइ उग्गही गुरुणो ।
अणुन्नायस्स संया,
२८१
न कप्पए तत्थ पविसेउ || १२६ ॥
प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में अवग्रह के छः भेद कहे गए हैं :नामावग्रह = नाम का ग्रहण, स्थापनावग्रह - स्थापना के रूप में किसी वस्तु का वग्रह कर लेना, द्रव्यावग्रह = वस्त्र पात्र श्रादि किसी वस्तु विशेष का ग्रहण, क्षेत्रावग्रह = अपने आस-पास के क्षेत्र विशेष एवं स्थान का ग्रहण, कालावग्रह वर्षा काल में चार मास का अवग्रह और शेष काल में एक मास आदि का भावावग्रह = ज्ञानादि प्रशस्त और क्रोधादि प्रशस्त भाव का ग्रहण |
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वृत्तिकार ने वंदन प्रसंग में आये श्रवग्रह के लिये क्षेत्रावग्रह और प्रशस्त भावावग्रह माना है ।
भगवती सूत्र आदि श्रागमों में देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गृहपतिश्रवग्रह, सागारी ( शय्यादाता) का अवग्रह, और साधर्मिक का अवग्रहइस प्रकार जो आज्ञा ग्रहण करने रूप पाँच अवग्रह कहे गए हैं, वे प्रस्तुत प्रसंग में ग्राह्य नहीं हैं ।
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होकार्य काय-संफासं
'अहो काय' का संस्कृत रूपान्तर अधःकाय है, जिसका अर्थ 'चरण' होता है । धःकाय का मूलार्थ है काय अर्थात् शरीर का सबसे नीचे का भाग । शरीर का सबसे नीचे का भाग चरण ही है, अतः श्रधःकाय का भावार्थ चरण होता है । 'अधः कायः पादलक्षणस्तमधः कार्य प्रति ।" -आचार्य हरिभद्र ।
'काय संफास' का संस्कृत रूपान्तर कायसंस्पर्श होता है । इसका अर्थ है 'कार्य से सम्यक्त्या स्पर्श करना।' यहाँ काय से