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श्रमण सूत्र
विवेचन यह उपस हार-सूत्र है । प्रतिक्रमण के द्वारा जीवन-शुद्धि का माग प्रशस्त हो जाने से प्रात्मा अाध्यात्मिक अभ्युदय के शिखर पर श्रारूढ़ हो जाता है । जब तक हम अपने जीवन का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण नहीं करेंगे, अपनी भूलों के प्रति पाश्चात्ताप नहीं करेंगे, भविष्य के लिए सदाचार के प्रति अचल संकल्प नहीं करेंगे; तब तक हम मानव जीवन में कदापि आध्यात्मिक उत्थान नहीं कर सकेगे । हमारे पतन के बीज, भूलों के प्रति उपेक्षाभाव रखने में रहे हुए हैं।
भूलों के प्रति पश्चात्ताप का नाम जैन परिभाषा में प्रतिक्रमण है । यह प्रतिक्रमण मन, वचन और शरीर तीनों के द्वारा किया जाता है । मानव के पास तीन ही शक्तियाँ ऐसी हैं जो उसे बन्धन में डालती हैं और बन्धन से मुक्त भी करती हैं। मन, वचन और शरीर से बाँधे गए पार मन, वचन और शरीर के द्वारा ही क्षीण एवं नट भी होते हैं। राग-द्वेष से दूषित मन, वचन और शरीर बन्धन के लिए होते हैं, और ये ही वीतराग परिणति के द्वारा कर्म बन्धनों से सदा के लिए मुक्ति भी प्रदान करते हैं।
अालोचना का भाव अतीव गंभीर है। निशीथ चूर्णिकार जिनदास गणि कहते हैं कि-"जिस प्रकार अपनी भूलों को, अपनी बुराइयों को तुम स्वयं स्पष्टता के साथ जानते हो, उसी प्रकार सष्टतापूर्वक कुछ भी न छुपाते हुए गुरुदेव के समक्ष ज्यों-का त्यों प्रकट कर देना बालोचना है।" यह आलोचना करना, मानापमान की दुनिया में घूमने वाले साधारण मानव का काम नहीं है । जो साधक दृढ़ होगा, आत्मार्थी होगा, जीवन शुद्धि की ही चिन्ता रखता होगा, वही आलोचना के इस दुर्गम पथ पर अग्रसर हो सकता है।
निन्दा का अर्थ है-अात्म साक्षी से अपने मन में अपने पापों की निन्दा करना । गर्दा का अर्थ है-घर की साक्षी से अपने पापों की बुराई करना । जुगु-सा का अर्थ है-~यापों के प्रति पूर्ण घृणा भाव व्यक्त करना ।
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