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प्रतिज्ञा-सूत्र
२५७
पत्तेय बुद्धादयो । सिरसा इति कायजोगेण मत्यपुरा वंदामित्ति एस
एव वइजोगो ।"
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पाठान्तर
...,
प्रस्तुत पाठ का अन्तिम अंश 'अंडढाइजे सु श्रादि को कुछ आचार्य गाथा के रूप में लिखते हैं और कुछ गद्यरूप में | कुछ जावन्त कहते हैं और कुछ जावन्ति । 'पडिंग्गहं धारा' आदि में प्राचार्य जिनदास सर्वत्र 'धरा' का प्रयोग करते हैं और आचार्य हरिभद्र आदि 'धारा' का । श्राचार्य हरिभद्र 'अड्ढार सहस्स सीलंग धारा' लिखते हैं और श्राचार्य जिनदास 'अट्ठारस सीलंग - सहस्सधरा । कुछ प्रतियों में रथवाचक रह शब्द बढ़ाकर ' अड्डार सहस्स सीलिंग रह धारा' भी लिखा मिलता है । आचार्य जिनदास ने आवश्यक - चूर्ण में अपने समय के कुछ और भी पाठान्तरों का उल्लेख किया है - " केइ पुण समुद्दपदं गोच्छ पडिंग्गहपदं चं न पुढंति, अण्णे पुण श्रड्ढाइजेसु दोसु दीवसमुद्देसु पढंति, एत्थ विभासा कातव्वा ।"
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