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कि "मैं मिथ्याल, अविरति प्रमाद और कपयभाव यादि ग्रमार्ग को विवेक पूर्वक त्यागता हूँ और सम्यक्त्व, विरति, श्रश्माद और कवाय भाव यदि मार्ग को ग्रहण करता हूँ ।"
जं संभरामि, जं च न संभरामि
श्रमण-सूत्र
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भयादि सूत्र की दिग्दर्शन कराया है ।
१
व्याख्या में हमने प्रतिक्रमण के विराट रूप का उसका ग्राशय यह है कि यह मानव जीवन चारों र से दोषाच्छन्न है । सावधानी से चलता हुआ साधक भी कहीं न कहीं भ्रान्त हो ही जाता है। जब तक साधक छेदस्थ हैं, 'घातिकमदय से युक्र है, तब तक नाभोगता किसी न किसी रूप में बनी ही रहती है । यतः एक, दो आदि के रूप में दोनों की क्या गणना ? असंख्य तथा अनन्त असंयम स्थानों में से, पता नहीं, कब कौन सा श्रमयम का दोष लग जाय ? कभी उन दोषों की स्मृति रहती है, कभी नहीं भी रहती है । जिन दोषों की स्मृति रहती है, उनका तो नामोल्लेख पूर्वक प्रतिक्रमण किया जाता है । परन्तु जिनकी स्मृति नहीं है उनका भी प्रतिक्रमण कर्तव्य है । इन्हीं भावनाओं को ध्यान में रखकर प्रतिक्रमण सूत्र की समाप्ति पर श्रमण साधक कहता है कि “जिन दोषों की मुझे स्मृति है, उनका प्रतिक्रमण करता हूँ, और जिन दोषों की स्मृति नहीं भी रही है, उनका भी प्रतिक्रमण करता हूँ ।"
जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि
'जं संभरामि' श्रादि से लेकर 'जं च न पडिक्कमामि' तक के सूत्रांश का सम्बन्ध ' तस्स सव्वरस देवसियत्स अइयारस्स पडिक्कमामि' से है । तः सबका मिलकर अर्थ होता है जिनका स्मरण करता हूँ, जिनका स्मरण नहीं करता हूँ. जिनका प्रतिक्रमण करता हूँ, जिनका प्रतिक्रमण नहीं करता हूँ, उन सब दैवसिक अतिचारोंका प्रतिक्रमण करता हूँ ।
१ 'घातिककर्मोदयतः खलितमासेवितं पडिक्कमामि मिच्छा दुक्कडादिशा । ' - आवश्यक चूर्णि
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