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प्रतिज्ञा-सूत्र
२४७
श्राचार्य जिनदास अप्रशस्त = अयोग्य क्रिया को प्रक्रिया कहते हैं और प्रशस्त = योग्य क्रिया को किया । “अप्पसत्था किरिया अकिरिया, इतरा किरिया इति ।" अबोधि और बोधि
जैन साहित्य में अयोधि और बोधि शब्द बड़े ही गंभीर एवं महत्त्वपूर्ण हैं । अबोधि और बोधि का उपरितन शब्दस्पर्शी अर्थ होता है'अज्ञान और ज्ञान ।' परन्तु यहाँ यह अर्थ अभीट नहीं है। यहाँ अबोधि से तात्पर्य है मिथ्यात्व का कार्य, और बोधि से तात्पर्य है सम्यक्त्व का कार्य । आचार्य हरिभद्र, अबोधि एवं बोधि को क्रमशः मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व का अंग मानते हुए कहते हैं---"प्रबोधिः-मिथ्यात्वकार्य, बोधिस्तु सम्यक्त्वस्येति ।” ___ असत्य का दुराग्रह रखना, संसार के कामभोगों में आसक्ति रखना, धर्म की निन्दा करना, प्राणियों के प्रति निर्दय भाव रखना, वीतराग अरिहन्त भगवान् का अवर्णवाद बोलना, इत्यादि मिथ्यात्व के कार्य हैं। सत्य का अाग्रह रखना, संसार के काम भोगों में उदासीन रहना, धर्म के प्रति दृढ़ आस्था रखना, प्राणिमात्र पर प्रेम तथा करुणा का भाव रखना, वीतराग देव के प्रति शुद्ध निष्कपट भक्ति रखना, इत्यादि सम्यक्त्व के कार्य हैं । अबोधि को जानना, त्यागना और बोधि को स्वीकार करना, साधक के लिए परमावश्यक है। __ आगमरत्नाकर पूज्य श्री अात्माराम जी महाराज बोधि का अर्थ सुमार्ग करते हैं । पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज अबोधि का अर्थ 'अतत्वज्ञप्ता' करते हैं और बोधि का अर्थ 'बोधिबीज' । अमागे और मागे
प्रथम असयम के रूप में सामान्यतः विपरीत अाचरण का उल्लेख किया गया था । पश्चात् अब्रह्म अादि में उसी का विशेष रूप से निरूपण होता रहा है। अब अन्त में पुनः सामान्य-रूपेण कहा जा रहा है
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