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प्रतिज्ञा-सूत्र
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रस्थान कहते हैं। अतः प्रत्याख्यान-परिजा से पहले ज्ञ-परिज्ञा अत्यन्त श्रावश्यक है । अज्ञानी माधक कुछ भी हिताहित नहीं जान सकता। 'अन्नाणी कि काही? किंवा नाही सेयपावगं ।'
अतएव 'असंजम परित्राणामि संजमं उव संपजामि' इत्यादि सूत्रपाट में जो 'परित्राणामि' क्रिया है, उसका अर्थ न केवल जानना है
और न केवल छोड़ना । प्रत्युत सम्मिलित अर्थ है, 'जानकर छोड़ना ।' इसी विचार को ध्यान में रख हमने भावार्थ में लिखा है कि 'असयम को जानता हूँ और त्यागता हूँ' इत्यादि । प्राचार्य जिनदास भी यही कहते हैं-'परियाणामित्ति ज्ञपरिगणया जाणामि, पञ्चक्खाणपरिणया 'पञ्चक्खामि ।' प्राचार्य हरिभद्र भी पडिजाणमि' पाट स्वीकार करके 'प्रतिजानामि' सस्कृत रूप बनाते हैं और उसका अर्थ करते हैं..--'ज्ञ-परिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यान-परिजया प्रत्यायामीत्यर्थः । श्रद्धय पूज्य श्री अात्मारामजी महाराज ने भी दोनों ही परिज्ञाओं का उल्लेख किया है, जो परम्परासिद्ध एवं तर्कमगत है। परन्तु श्रद्ध य पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी केवल 'त्याग' अर्थ का ही उल्लेख करते हैं। संभव है, आपका ज्ञ-परिज्ञा से परिचय न हो ! अकल्प और कल्प
कल्प का अर्थ याचार है । अतः चरण-करण रूप प्राचार-व्यवहार को अागम की भाषा में कल्प कहा जाता है। इसके विपरीत अकल्प होता है। साधक प्रतिज्ञा करता है कि 'मैं अकल्प == अकृत्य को जानता तथा त्यागता हूँ, और कल्प = कृत्य को स्वीकार करता हूँ।१
पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज 'अकप्पं परित्राणामि कप 'उवसंपजामि' का अर्थ करते हैं-'अकल्पनीक वस्तु का त्याग करता हूँ, कल्पनीक वस्तु को अंगीकार करता हूँ।' पूज्य श्री के अर्थ से कोई भी
'अकल्पोऽकृत्यमारयायते, कल्पस्तु कृत्यमिति ।-प्राचार्य हरिभद्र ।
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