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प्रतिज्ञा-सूत्र
२४३
यही कारण है कि साधक श्रद्धा, प्रीति और रुचि से आगे बढ़कर कहता है-"मैं धर्म का स्पर्श करता हूँ, उसे अाचरण के रूप में स्वीकार करता हूँ।" "केवल स्पर्श ही नहीं, मैं प्रत्येक स्थिति में धर्म का पालन करता हूँ-स्वीकृत प्राचार की रक्षा करता हूँ।” “एक-दो बार ही पालन करता हूँ, यह बात नहीं । में धर्म का नित्य निरन्तर पालन करता हूँ, बार-बार पालन करता हूँ, जीवन के हर क्षण में पालन करता हूँ "
प्राचार्य जिनदास 'अणुपालेमि' का एक और अर्थ भी करते हैं कि “पूर्वकाल के सत्पुरुषों द्वारा पालित धर्म का मैं भी उसी प्रकार अनुपालन करता हूँ।" इस अर्थ में परम्परा के अनुसार चलने के लिए पूर्ण दृढ़ता अभिव्यक्त होती है। 'अहवा पुठ्य पुरिसेहिं पालितं अहं पि अणुपालेमित्ति ।'-आवश्यक चूर्णि अन्मुट्टिोमि' ___ यह उपर्युक्त शब्द कितना महत्वपूर्ण है ! साधक प्रतिज्ञा करता है कि "मैं धर्म की श्रद्धा, प्रीति, स्पर्शना, पालना तथा अनुपालना करता हुआ धर्म की आराधना में पूर्ण रूप से अभ्युत्थित होता हूँ और धर्म की विराधना से निवृत्त होता हूँ ।” वाणी में कितना गंभीर, अटल, अचल स्वर गूंज रहा है ! एक-एक अक्षर में धर्माराधन के लिए अखंड सत्साहस की ज्वालाएँ जग रही हैं ! 'अभ्युत्थिोऽस्मि, सन्नद्धोऽस्मि' यह कितना साहस भरा प्रण है !
क्या आप धर्म के प्रति श्रद्धा रखते हैं ? क्या आपकी धर्म के प्रति अभिरुचि है ? क्या आप धर्म का पालन करना चाहते हैं ? यदि हाँ, तो फिर निष्क्रिय क्यों बैठते हैं ? कर्तव्य के क्षेत्र में चुप बैठना, ग्रालसी बन कर पड़े रहना, पाप है । कोई भी साधक निष्क्रिय रह कर जीवन का
१ प्रस्तुत पाठ को 'अब्भुडिअोमि' से खड़े होकर पढ़ने की परम्परा . भो है।
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