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प्रतिज्ञा-सूत्र
२४१ उक विशेषण का एक और भी अभिप्राय हो सकता है । वह यह कि सांख्य दर्शन प्रादि कुछ दर्शन आत्मा को सर्वथा बन्धनरहित होना मानते हैं। उसके यहाँ न कभी अात्मा को कर्म बन्ध होता है और न तत्फलस्वरूप दुःख ग्रादि ही। दुःख आदि सब प्रकृति के धर्म हैं, पुरुप अर्थात् प्रात्मा के नहीं । जैन दर्शन इस मान्यता का विरोध करता है । वह कहता है कि कर्म बन्ध श्रात्मा को होता है, प्रकृति को नहीं । प्रकृति तो जड़ है, उसको बन्ध क्या और मोक्ष क्या ? यदि कर्म और तजन्य दुःख ग्रादि अात्मा को लगते ही नहीं हैं तो फिर यह संसार की स्थिति किस बात पर है ? अात्माएँ दुःख से हैरान क्यों हैं ? अतः कम बार उसका फल जब तक यात्मा से लगा रहता है, तब तक संसार है । और ज्यों ही कर्म तथा तजन्य दुःखादि का अन्त हुअा, आत्मा मोन प्राप्त कर लेती है, मुक्त हो जाती है। जैन साहित्य में दुःख शब्द स्वयं दुःख के लिए भी प्राता है, और शुभाशुभ कर्मों के लिए भी। इसके लिए भगवती सू । देखना चाहिए । अतः 'सव्व दुक्खाणमंतं करेंति' का जहाँ यह अर्थ होता है कि 'सब दुःखों का अन्त करता है, वहाँ यह अर्थ भी होता है कि 'सत्र शुभाशुभ कर्मों का अन्त करता है। जब कर्म ही न रहे तो फिर सांसारिक सुख, दुःख, जन्म, मरण आदि का द्वन्द्व कैसे रह सकता है ? जब बीज ही नहीं तो वृक्ष कैसा ? जब मूल ही नहीं तो शाखा-शाखा कैसी ? मोक्ष, आत्मा की वह निद्वन्द्व अवस्था है, जिसकी उपमा विश्व की किसी वस्तु से नहीं दी जा सकती। प्रीति और रुचि
धर्म के लिए अपनी हादिक श्रद्धा अभिव्यक्त करते हुए साधक ने कहा है कि 'मैं धर्म की श्रद्धा करता हूँ, प्रीति करता हूँ, और रुचि करता हूँ।' यहाँ प्रीति और रुचि में क्या अन्तर है ? यह प्रश्न अपना समाधान चाहता है।
समाधान यह है कि ऊपर से कोई अन्तर नहीं मालूम देता. परन्तु अन्तरंग में विशेष अन्तर है। प्रीति का अर्थ प्रेम भरा अाकर्षण
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