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श्रमण-सूत्र
है और रुचि का अर्थ है अभिरुचि अर्थात् उत्सुकता। प्राचार्य जिनदास के शब्दों में कहें तो रुचि के लिए 'अभिलाषातिरेकेण प्रासेवनाभिमुखता' कह सकते हैं।
एक मनुष्य को दधि प्रादि वस्तु प्रिय तो होती है, परन्तु कमी किसी विशेष ज्वरादि स्थिति में रुचिकर नहीं होती । अतः सामान्य प्रमाकर्षण को प्रीति कहते हैं, और विशेष प्रेमाकर्षण को अभिरुचि । अस्तु, साधक कहता है 'मैं धम की श्रद्धा करता हूँ ।' श्रद्धा ऊपर मन से भी की जा सकती है अतः कहता है कि मैं धम की प्रीति करता हूँ।' प्रीति होते हुए भी कभी विशेष स्थिति में रुचि नहीं रहती, अतः कहता है कि 'मैं धर्म के प्रति सदाकाल रुचि रखता हूँ।' कितने ही संकट हों, आपत्तियाँ हों, परन्तु सच्चे साधक की धम के प्रति कभी-भी अरुचि नहीं होती। वह जितना ही धर्माराधन करता है, उतनी ही उस पोर रुचि बढ़ती जाती है । धर्माराधन के मार्ग में न सुख बाधक बन सकता है और न दुःख ! दिन रात अविराम गति से हृदय में श्रद्धा, प्रीति और रुचि की ज्योति प्रदीत करता हुआ, साधक, अपने धर्म पथ पर अग्रसर होता रहता है । बीच मञ्जिल में कहीं ठहरना, उसका काम नहीं है । उसकी आँखे यात्रा के अन्तिम लक्ष्य पर लगी रहती हैं । वह वहाँ पहुँच कर ही विश्राम लेगा, पहले नहीं। यह है साधक के मन की अमर श्रद्धाज्योति, जो कभी बुझती नहीं । फासेमि, पालेमि, अशुपालेमि
जैनधर्म केवल श्रद्धा, प्रीति और रुचि पर ही शान्त नहीं होता। उसका वास्तविक लीलाक्षेत्र कर्तव्य-भूमि है । वह कहनी के साथ करनी की रागनी भी गाता है । विश्वास के साथ तदनुकूल आचरण भी होना चाहिए । मन, वाणी और शरीर की एकता ही साधना का प्राण है।
१-"प्रीती रुचिश्च भिन्ने एव, यतः क्वचिद् दम्यादी प्रीतिसद्भावेऽपि न सर्वदा रुचिः। ----श्राचार्य हरिभद्र ।
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