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प्रतिज्ञा सूत्र
२३७
मोक्ष नहीं । जब तक ज्ञान अनन्त न हो, दर्शन अनन्त न हो, चारित्र अनन्त न हो, वीर्य अनन्त न हो, सत्य अनन्त न हो, करुणा अनन्त न हो, किं बहुना, प्रत्येक गुण अनन्त न हो, तब तक मोक्ष होना स्वीकार नहीं करता । अनन्त श्रात्म-गुणों के विकास की पूर्ति अनन्तता में ही है, पहले नहीं। और यह पूण ता अपनी साधना के द्वारा ही प्राप्त होती है । किसी की कृपा से नहीं। अतः 'इत्थं ठिा जीवा सिमंति' सर्वथा युक्त ही कहा है। बुज्झति
सिझति' के बाद 'बुज्झति' कहा है । बुज्झति का अर्थ बुद्ध होता है, पूर्ण ज्ञानी होता है। प्रश्न है कि बुद्धत्व तो सिद्ध होने से पहले ही प्राप्त हो जाता है। श्राध्यात्मिक विकास क्रमस्वरूप चौदह गुण स्थानों में; अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन श्रादि गुण तेरहवे गुण स्थान में ही प्राप्त हो जाते हैं, और मोक्ष, चौदहवें गुण स्थान के बाद होती है। अतः 'सिझति' के बाद बुज्झति' कहने का क्या अर्थ है ? विकासक्रम के श्रनुसार तो बुज्झति का प्रयोग सिझति से पहले होना चाहिए था।
यह सत्य है कि केवल ज्ञान तेरहवे गुणस्थान में प्रात हो जाता है, अतः विकास क्रम के अनुसार बुद्ध त्व का नम्बर पहला है। और सिद्धत्व का दूसरा । परन्तु यहाँ सिद्धत्व के बाद जो बुद्धत्व कहा है उसका अभिप्रायः यह है कि सिद्ध हो जाने के बाद भी बुद्धत्व बना रहता है, नष्ट नहीं होता है।
वैशेषिक दर्शन की मान्यता है कि मोन में श्रात्मा का अस्तित्व तो रहता है, किन्तु ज्ञान का सर्वथा अभाव हो जाता है। ज्ञान प्रात्मा का एक विशेष गुण है । और मुक्त अवस्था में कोई भी विशेष गुण रहता नहीं है, नष्ट हो जाता है। अतः मोक्ष में जब अात्मा चैतन्य भी नहीं रहता तब उसके अनन्त ज्ञानी बुद्ध होने का तो कुछ प्रश्न ही नहीं ।
यह सिद्धान्त है वैशेषिक दर्शनकार महर्षि कणाद का । जैनदर्शन इसका सर्वथा विरोधी दर्शन है। जैनधर्म कहता है-“यह भी क्या
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