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प्रतिज्ञा सूत्र
२३५ यह तो केवलिगम्य है। हाँ, अभी तक और कोई समाधान हमारे देखने में नहीं आया है। अविसन्धि
अविमधि का अर्थ है-सन्धि से रहित । सन्धि, बीच के अन्तर को कहते हैं । अतः फलितार्थ यह हुया कि जिन शासन अनन्तकाल से निरन्तर अव्यवच्छिन्न चला या रहा है । भरतादि क्षेत्र में, किसी काल विशेष में नहीं भी होता है, परन्तु महा विदेह क्षेत्र में तो सदा सर्वदा अव्यवच्छिन्न बना रहता है । काल की सीमाएँ जैनधर्म की प्रगति को अवरुद्ध नहीं कर सकतीं। वह धर्म ही क्या, जो काल के घेरे में या जाय ! जिन धर्म, निज धम है-अात्मा का धम है । अतः वह तीन काल और तीन लोक में कहीं न कहीं सदा सर्वदा मिलेगा ही। जैनधम ने देवलोक में भी सम्यक्त्व का होना स्वीकार किया है और नरक में भी। पशु-पन्नी तथा पृथ्वी, जल आदि में भी सम्यग दशन का प्रकाश मिल जाता है । अतः किसी क्षेत्रविशेष एवं काल विशेष में जैनधर्म के न होने का जो उल्लेख किया है, वह चारित्ररूप धर्म का है, सम्यक्त्व धर्म का नहीं। सम्यक्त्व धम तो प्रायः सर्वत्र ही अव्यवच्छिन्न रहता है । हाँ चारित्र धम की अव्यवच्छिन्नता भी महाविदेह की दृष्टि से सिद्ध हो जाती है। सर्व दुःख प्रहीण-मार्ग
धम का अन्तिम विशेषण सर्वदुःख प्रहीणमार्ग है । उक्त विशेषण में धम की महिमा का विराट सागर छुपा हुआ है । संसार का प्रत्येक प्राणी दुःख से व्याकुल है, क्लेश से सतप्त है । वह अपने लिए सुख चाहता है, ग्रानन्द चाहता है। प्रानन्द भी वह, जो कभी दुःख से सभिन्न = स्पृष्ट न हो । दुःखास भिन्नत्व ही सुख की विशेषता है । परन्तु सौंसार का कोई भी ऐसा सुख नहीं है, जो दुःख से असं भिन्न हो । यहाँ सुख से पहले दुःख है, सुख के बाद दुःख है, और सुख की विद्यमानता में भी दुःख है । एक दुःख का अन्त होता नहीं है और
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