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अतिचार अालोचना माया-लोभ अतल महासागर,
डूबे पार नहीं पावें। राग, द्वेष, कलह के कारण,
पामर नर-जीवन होता । अभ्याख्यान पिशुनता का विष,
शान्ति-सुधा का रस खोता। पृष्ठ-मांस भक्षण-सी निन्दा,
फैले क्लेश परस्पर में। रति अरति से क्षण-क्षण बहता,
हर्ष-शोक-नद अन्तर में। मायामृषा खड्ग की धारा,
मधु-प्रलिप्त जहरीली है। मिथ्या दर्शन की तो अति ही,
घातक विकट पहेली है। भगवन् ! ये सब पाप पुण्यरिपु,
स्वयं करे करवाए हों। अथवा बन अनुमोदक स्तुति के,
गीत मुदित हो गाए हों। पूर्णरूप से कर आलोचन,
पाप-क्षेत्र से हटता हूँ। अधः पतन के पथ को तज कर,
उन्नत पथ पर बढ़ता हूँ
उपसंहार पंच महाव्रत श्रेष्ठ मूल गुण मंगलकारी, दशविध प्रत्याख्यान गुणोत्तर कलिमल हारी।
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