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श्रमण सूत्र
कितने ही विद्वानों का एक और अर्थ भी है । वह बहुत विलक्षण है । वे 'सुट्ट्टु दिन्नं' में ' 'सुदिन्न' इस प्रकार दिन्नं से पहले अकार का प्रश्लेप मानते हैं और अर्थ करते हैं कि ग्रालस्यवश या अन्य किसी यदि के कारण से योग्य शिष्य को अच्छी तरह ज्ञानदान न दिया हो ।' अर्थ बहुत सुन्दर मालूम देता है ।
यह
अत्र अन्त में एक महत्वपूर्ण अर्थ की चर्चा की जा रहीं है । इस अर्थ के पीछे एक प्राचीन और विद्वान् ग्राचार्यों की परंपरा है । श्राचार्य हरिभद्र कहते हैं- 'सुष्ठु दत्त गुरुणा दुष्ठु प्रतीच्छितं कलुपान्तर' त्मनेति । ' इस सक्षेोक्ति में दोनों पदों को मिलाकर एक अतिचार मानने का भ्रम होता है । इस भ्रान्ति को दूर करते हुए मलधार गच्छीय श्राचार्य - हेमचन्द्र, अपने हरिभद्रीय आवश्यक टिप्पक में लिखते हैं 'सुष्ठु दत्तं' में सुष्ठु शब्द शोभन वाचक नहीं है, जिसका अर्थ अच्छा किया जाता है । क्योंकि अच्छी तरह ज्ञान देने में कोई प्रतिचार नहीं है । तः यहाँ सुष्ठु शब्द अतिरेकवाचक समझना चाहिए | अल्प श्रुतं के योग्य अल्पबुद्धि शिष्य को अधिक अध्ययन करा देना, उसकी योग्यता का विचार न करना, ज्ञानातिचार है ।
"ननु तथाप्येतानि चतुर्दश पदानि तथा पूर्यन्ते यदा सुष्ठु दत्त दुछु प्रतीच्छित मिति पदद्वयं पृथगाशातना - स्त्ररूपतया गण्यते । नचैतद् युज्यते, सुष्ठु दत्तस्य तद्रूपताऽयोगात् । नहि शोभनविधिना दत्त काचिदाशातना संभवति ?
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सत्यं स्यादेतद् यदि शोभनत्ववाचकोऽत्र सुष्ठु शब्दः स्यात् । तच्च नास्ति, अतिरेक वाचित्वेन इहास्य विवक्षितत्वाद् । एतदत्र हृदयम्सुष्ठु = अतिरेकेण विवचिताऽल्पश्रुतयोग्यस्य पात्रस्याऽऽधिक्येन यत् श्रुतं दत्तं तस्य मिथ्या दुष्कृतमिति विवक्षितत्वान्न किञ्चिदसङ्गतमिति । ”
प्रत्येक कार्य में योग्यता का ध्यान रखना आवश्यक है । साधारण अल्पबुद्धि शिष्य को मोह या आग्रह के कारण शास्त्रों की विशाल वाचना दे दी जाय तो वह सँभाल नहीं सकता । फलतः ज्ञान के प्रति अरुचि
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