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श्रमण-सूत्र ही अन्य अनन्त बोल भी अर्थतः सकल्प में रखने चाहिएं, भले ही वे ज्ञात हो या अज्ञात हों। साधक को केवल ज्ञात का ही प्रतिक्रमण नहीं करना है, अपितु अज्ञात का भी प्रतिक्रमण करना है | तभी तो आगे के अन्तिम पाठ में कहा है 'जे संभरामि, जं च न संभरामि ।' अर्थात् जो दोष स्मृति में पा रहे हैं उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। और जो दोष इस समय स्मृति में नहीं पा रहे हैं, परन्तु हुए हैं, उन सत्र का भी प्रतिक्रमण करता हूँ।
यह है प्रतिक्रमण का विराट रूप । यहाँ विन्दु में सिन्धु समाना होता है, पिण्ड में ब्रह्माण्ड का दर्शन करना होता है। एक सचित्त रजकरण पर पैर या गया, असख्य जीवों की हिंसा हो गई । एक सचित्त जलबिन्दु का उपघात हो गया, असंख्य जीवों की हिंसा हो गई। कहीं भी निगोद का स्पर्श हुया तो अनन्त जीवों की विराधना हो गई । इस प्रकार असयम स्थान अनन्त रूप ले लेते हैं। एक रजकण का भी यथार्थ श्रद्धान न हुआ तो तद्गत अनन्त परमाणुओं के कारण अश्रद्धा ने अनन्त रूप ले लिया। लोकालोक रूप अनन्त विश्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की मिथ्या प्ररूपणा हुई तो विपरीत प्ररूपणा अनन्त रूप ग्रहण कर लेती है । जब साधक इन सब विपरीत श्रद्धा, विपरीत प्ररूणा एवं विपरीत पासेवना रूप अनन्त असंयम स्थानों से हटकर सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् प्ररूपणा एवं सम्यक् प्रासेवना रूप अनन्त सौंयम स्थानों में वापस लौट कर पाता है, तब क्या प्रतिक्रमण अनन्त रूप नहीं हो जाता है ? अवश्य हो जाता है । तभी तो मलधारगच्छीय प्राचार्य हेमचन्द्र, यावश्यक टीप्पणक में प्रस्तुत प्रसग को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-"अपरस्यापि चतुरिंशदादेरनंतपर्यवसानस्थ प्रतिक्रमण--स्थानस्यार्थतोऽत्र सूचितत्वात् ।”
प्राचार्य जिनदास महत्तर भी अावश्यक चूणि में लिखते हैं-"एवं ता सुत्तनिबंध, अत्थतो तेत्तीसाश्रो चोत्तीसा भवंतीत्ति, चोत्तीसाए बुद्धवयणातिसे सेहिं, पणतीसाए सञ्चवयणातिसे सेहि, छतीसाए उत्तर
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