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श्रमण-सूत्र
तपोवीयण युक्तश्च,
तस्माद्वीर इति स्मृतः ।। ----जो कमों का विदारण करता है, तपस्तेज के द्वारा विराजित सुशोभित होता है, तप एवं वीर्य से युक्त रहता है, वह वीर कहलाता है ।
भगवान् वीर के नाम में उपयुक्त गुणों का प्रकाश सब योर फैला हुआ है। उनका तप, उनका तेज, उनका श्राध्यात्मिक बल, उनका त्याग अद्वितीय है । भगवान् के जीवन की प्रत्येक झाँकी हमारे लिए आध्यात्मिक प्रकाश अर्पण करने वाली है। जिन शासन की महत्ता
तीर्थंकर देवों को नमस्कार करने के बाद जिन-शासन की महिमा का वर्णन किया गया है। अहिंसा प्रधान जिन-शासन के लिए ये विशेषण सर्वथा युक्तियुक्त हैं। वह सत्य है, अद्वितीय है, प्रतिपूर्ण है, तर्कसंगत है, मोक्ष का मार्ग है, दुःखों का नाश करने वाला है। धर्म का मौलिक अर्थ ही यह है कि----वह साधक को ससार के दुःख और परिताप से निकाल कर उत्तम एवं अविचल सुख में स्थिर करे । जिस धर्म से अनन्त, अविनाशी और अक्षय सुख की प्राप्ति न हो वह धर्म ही नहीं । जैनधर्म त्याग, वैराग्य एवं वासना निवृत्ति पर ही केन्द्रित है; अतः वह एक दृष्टि से यात्मधर्म है, श्रात्मा का अपना धर्म है। मानव जीवन की चरम सफलता त्याग में ही रही हुई है, और वह त्याग जैनधर्म की साधना के द्वारा भली भाँति प्राप्त किया जा सकता है।
आइए, अब कुछ मूल शब्द पर विचार कर ले। मूल शब्द है'निग्गंथं पावयण।" 'पावयण' विशेष्य है और 'निग्गंध' विशेषण है। जैन साहित्य में 'निग्गंध' शब्द सर्वतोविश्रुत है । 'निग्गंध' का संस्कृत रूप 'निग्रन्थ' होता है। निम्रन्थ का अर्थ है-~धन, धान्य आदि बाह्यग्रन्थ और मिथ्यात्व, अविरति तथा क्रोध, मान, माया, आदि अाभ्यन्तर
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