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प्रतिज्ञा-सूत्र
२२५
अन्य अर्थात् परिग्रह से रहित पूर्ण त्यागी एवं संयमी साधु ।' 'बाद्याभ्यन्तरग्रन्थनिर्गताः साधवः ।
--श्राचार्य हरिभद्र । प्राचार्य हरिभद्र की उपर्युक्त व्युत्पत्ति के समान ही अन्य जैनाचार्यों ने भो निग्रन्थ की यही व्युत्पत्ति की है । परन्तु जहाँ तक विचार की गति है, यह शब्द साधारण साधुओं के लिए उपचार से प्रयुक्त होता है, क्योंकि मुख्य रूप से वाह्याभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी पूर्ण निग्रन्थ तो अरिहन्त भगवान ही होते हैं। साधारण निन्थपदवाच्य साधु तो बाह्य परिग्रह का त्यागी होता है, और अान्तर परिग्रह के कुछ अंश को त्याग देता है एवं शेष अंश को त्यागने के लिए साधना करता है । यदि साधारण साधु भी क्रोधादि याभ्यन्तर परिग्रह का पूर्ण त्यागी हो जाय तो फिर वह साधक कैसा ? पूर्ण न हो जाय, कृतकृत्य न हो जाय ? निग्रन्थत्व की विशुद्ध दशा उपशान्तमोह एवं क्षीण मोह गुण स्थानों पर ही प्राप्त होती है, नीचे नहीं। अतएव जो राग द्वष की गाँठ को सर्वथा अलग कर देता है, तोड़ देता है, वह तत्त्वतः निश्चयनय सिद्ध निग्रन्थ है । और जो अभी अपूर्ण है, किन्तु नैन्थ्य अर्थात् निग्रन्थत्व के प्रति यात्रा कर रहा है, भविष्य में निन्थत्व की पूर्ण स्थिति प्राप्त करना चाहता है, वह व्यवहारतः सम्प्रदाय-सिद्ध निग्रन्थ है । देखिए, तत्त्वार्थभाष्य अध्याय ६, सू० ४८ ।
निर्ग्रन्थों-अरिहंतों का प्रवचन, नैन्थ्य प्रावचन है। 'निर्ग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थ्यं प्रावचनमिति /-आचार्य हरिभद्र । मूल में जो 'निग्गंथं' शब्द है, वह निग्रन्थ-वाचक न होकर नन्थ्य-वाचक है । अत्र रहा 'पावयण' शब्द, उसके दो सस्कृत रूपान्तर हैं प्रवचन और प्रावचन । प्राचार्य जिनदास प्रवचन कहते हैं और हरिभद्र प्रावचन । शब्दभेद होते हुए भी, दोनों प्राचार्य एक ही अर्थ करते हैं--'जिसमें जीवादि पदार्थों का तथा
१-प्राचार्य हरिभद्र भी सामायिकाध्ययन की ७८६ गाथा की टीका में कहते हैं-'निग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थ्यम्-आर्हतमिति भावना ।'
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