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प्रतिज्ञा सूत्र
२२१.
है कि जैसी साधना करनी हो उसी साधना के उपासकों का स्मरण किया जाता है । युद्धवीर युद्धवीरों का तो ग्रर्थवीर अर्थवीरों का स्मरण करते हैं । यह धर्म युद्ध है, यतः यहाँ धर्मवीरों का ही स्मरण किया गया है । जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर धर्म साधना के लिए अनेकानेक भयंकर परीपद सहते रहें हैं एवं ग्रन्त में साधक से सिद्ध पद पर पहुँच कर अजर श्रमर परमात्मा हो गए हैं । अतः उनका पवित्र स्मरण हम साधकों के दुर्बल मन में उत्साह. चल एवं स्वाभिमान की भावना प्रदीप्त करने वाला है । उनकी स्मृति हमारी ग्रात्मशुद्धि को स्थिर करने वाली है । तीर्थकर हमारे लिए कार में प्रकाश स्तंभ हैं ।
भगवान् ऋषभदेव
वर्तमान कालचक्र में चौबीस तीर्थकर हुए हैं, उनमें भगवन् ऋषभदेव सर्व प्रथम हैं । आपके द्वारा ही मानव सभ्यता का श्राविर्भाव हुआ है । ग्राप से पहले मानव जंगलों में रहता, वन फल खाता ए सामाजिक जीवन से शून्य केला घूमा करता था । न उसे धर्म का पता था और न कर्म का ही । भगवान् ऋषभ के प्रवचन ही उसे सामाजिक प्राणी बनाने वाले हैं, एक दूसरे के सुख दुःख की अनुभूति में सम्मिलित करने वाले हैं । दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि उस युग में मानव के पास शरीर तो मानव का था, परन्तु श्रात्मा मानव की न थी । मानव श्रात्मा का स्वरूप-दर्शन, सर्व प्रथम, भगवान ऋषभदेव ने ही कराया ।
भगवान् ऋषभदेव जैन धर्म के आदि प्रवर्तक हैं । जो लोग जैन धर्म को सर्वथा आधुनिक माने बैठे हैं, उन्हें इस ओर लक्ष्य देना चाहिए । भगवान् ऋषभदेव के गुण गान वेदों और पुराणों तक में गाए गए हैं । वे मानव संस्कृति के आदि उद्धारक थे, अतः वे मानव मात्र के पूज्य रहे हैं । आज भले ही वैदिक समाज ने, उनका वह ऋण, भुला दिया हो, परन्तु प्रचीन वैदिक ऋषि उनके महान् उपकारों को
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