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प्रतिज्ञा-सूत्र स्वीकार करता हूँ, अमाग = हिंसा अादि अमार्ग को जानता तथा त्यागता हूँ, मार्ग = अहिंसा ग्रादि मार्ग को स्वीकार करता हूँ:
[ दोष-शुद्धि] जो दोष स्मृतिस्थ हैं-याद हैं और जो स्मृतिस्थ नहीं हैं, जिनका प्रतिक्रमण कर चुका हूँ और जिन का प्रतिक्रमण नहीं कर पाया हूँ, उन सब दिवस-सम्बन्धी अतिचारों = दोषों का प्रतिक्रमण करता है____ मैं श्रम ग है, संयत-संयमी हूँ, विरत = साद्य व्यापारों से एवं संसार से निवृत्त हूँ, पाप कर्मों को प्रतिहत करने वाला हूँ एवं पाप कर्मों का प्रत्याख्यान-त्याग करने वाला हूँ, निदान रहित शल्य से रहित अर्थात् श्रासक्रि से रहित हूँ, दृष्टि सम्पन्न - सम्यग्दर्शन से युक्त हूँ, माया सहित मृयावाद = असत्य का परिहार करने वाला हूँ
ढाई द्वीप और दो समुद्र के परिमाण वाले मानव क्षेत्र में अर्थात् दरह कर्म भूमियों में जो भी रजोहरण, गुच्छक एवं पात्र के धारण करने वाले
तथा पाँच महाव्रत, अठारह हजार शील = सदाचार के अंगों के धारण करने वाले एवं अक्षत श्राचार के पालक त्यागी साधु हैं, उन सबको शिर से, मन से, मस्तक से वन्दना करता हूँ।
विवेचन यह अन्तिम प्रतिज्ञा का सूत्र है । प्रतिक्रमण अावश्यक के उपसंहार में साधक बड़ी ही उदात्त, गंभीर एवं भावनापूर्ण प्रतिज्ञा करता है। प्रतिज्ञा का एक-एक शब्द साधना को स्फूर्ति एवं प्रगति की दिव्य ज्योति से बालोकित करने वाला है । असयम को त्यागता हूँ और सौंयम को स्वीकार करता हूँ, अब्रह्मचर्य को त्यागता हूँ और ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ, अज्ञान को त्यागता हूँ और ज्ञान को स्वीकार करता हूँ, कुमार्ग को त्यागता हूँ, और सन्मार्ग को स्वीकार करता हूँ, इत्यादि कितनी मधुर एवं उत्थान के मकस्मों से परिपूर्ण पतिता है ? ..
जैन साधक निर्वृत्ति मार्ग का पथिक है । उसका मुन्व कैवल्य पद
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