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नियागो = निदान रहित
दिड्डि =
= सम्यग दृष्टि से
संपन्नो
विरय = विरत हूँ पsिहय = नाश करने वाला हूँ पच्चक्रवाय = त्याग करने वाला हूँ
पावकम्मो = पापकर्मो का
"
युक्र हूँ
माया = माया सहित
मो = मृषावाद से
१
=
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विवजियो = सर्वथा रहित हूँ अड्डाइज्जेसु = अढाई
दीव = द्वीप
समुद्र सु = समुद्रों में
पन्नरससु = पन्दरह
कम्मभूमीसु = कर्म भूमियों में
जावंत = जितने भी
केवि = कोई
साहू
= साधु हैं
स्यहरण = रजोहरण
प्रतिज्ञा-सूत्र
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गुच्छ = गोच्छक पडिग्गह = पात्र के
धारा = धारक हैं पंच : पाँच
महव्यय = महाव्रत के धारा = धारक हैं
ग्रड्ट्ठार = अट्ठारह
सहस्य = हजार सीलिंग
धारा = धारक हैं
अक्खय = अक्षत परिपूर्ण
ग्रायार = ग्राचार रूप चरिता = चारित्र के धारक हैं
= शीलाङ्ग के
ते = उन
सव्वे = सबको
सिरसा = शिर से
मरासा = मन से
मत्थष्ण = मस्तक से
चंदामि = वन्दना करता हूँ
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भावार्थ
भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर देवों को नमस्कार करता हूँ |
यह निर्ग्रन्थ प्रवचन श्रथवा प्रावचन ही सत्य है, अनुत्तर = सर्वोत्तम है, केवल = अद्वितीय है अथवा कैलिक = केवल ज्ञानियों से प्ररूपित है, प्रतिपूर्ण = मोक्षप्रापक गुणों से परिपूर्ण है, नैयायिक- मोच पहुँचाने वाला है अथवा न्याय से अबाधित है, पूर्ण शुद्ध अर्थात् सर्वथा निष्कलंक है, शल्यकर्तन = माया आदि शल्यों को नष्ट करने वाला है, सिद्धि