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श्रमण-सूत्र
समणोऽहं संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मो, अनियाणो, दिद्विसंपन्नो, माया-मोस-विवज्जियो ।
अड्ढाइज्जेसु दीर
समुद्दे पन्नरसन कम्मभूमी । जावंत के वि साहू,
रयहरण-गुच्छ-पडिग्गह-धारा ।।
पंचमहव्यय-धारा
अड्ढार-सहस्स-सीलंगवारा । अक्खयायारचरित्ता, ते सधे सिरसा मणसा मत्थएण बंदामि ॥
शब्दार्थ नमो = नमस्कार हो
अणुतरं = सर्वोत्तम है च उवीसाए - चौबीस
केलियं = सर्वज्ञ-प्ररूपित अथवा तित्थगराण = तीर्थंकरों को
अद्वितीय है उसमादि = ऋषभ श्रादि पनि पुगा = प्रतिपूर्ण है महावीर =महावीर
नेअाउयं = न्यायावाधित है, मोक्ष पज्जवसाणाण = पर्यन्तों को
... ले जाने वाला है इणमेव = यह ही
मसुद्ध = पूर्ण शुद्ध है निग्गथं = निर्ग्रन्थों का
सल्ल = शल्यों को पावयण = प्रवचन
गत्तण = काटने वाला है .. सच्चं -- सत्य है
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