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भैयादि सूत्र
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लैंगती है । अतः उदात्त (ऊँचा स्वर , अनुदात्त ( नीचा स्वर ), और स्वरित ( मध्यम स्वर) का ध्यान न रखते हुए स्वर हीन शास्त्र-पाढ करना, घोषहीन दोष माना गया है। सुष्ठु दत्त
'सुष्टु दत्त' के सम्बन्ध में बहुत-सी विवादास्पद व्याख्याएँ हैं। कुछ विद्वान् ‘सुठुदिन्न दुछु पडिच्छिय' को एक अतिचार मान कर ऐसा अर्थ करते हैं कि 'गुरुदेव ने अच्छी तरह अध्ययन कराया हो परन्तु मैंने दुविनीत भाव से बुरी तरह ग्रहण किया हो तो।' यह अथ संगत नहीं है । ऐसा मानने से ज्ञानातिचार के चौदह भेद न रह कर तेरह भेद ही रह जायेंगे, जो कि प्राचीन परंपरा से सर्वथा विरुद्ध है। अाशातना भी तेतीस से घट कर बत्तीस ही रह जायँगी, जो स्वयं आवश्यक के मूल पाठ से ही विरुद्ध है। अतः दोनो पद, दो भिन्न अतिचारों के सूचक हैं, एक के नहीं।
पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज आदि ऐसा अर्थ करते हैं कि 'मूर्ख, अविनीत तथा कुपात्र शिष्य को अच्छा ज्ञान दिया हो तो।' इस अर्थ में भी तर्क है कि मूर्ख तथा अविनीत शिष्य को अच्छा ज्ञान नहीं देना तो क्या बुरा ज्ञान देना ? ज्ञान को अच्छा विशेषण लगाने की क्या श्रावश्यकता है ? अविनीत तथा कुपात्र तो ज्ञान दान का अधिकारी पात्र ही नहीं है। रहा मूर्ख, सो उसे धीरे-धीरे ज्ञानदान के द्वारा ज्ञानी घनाना, गुरु का परम कर्तव्य है। अस्तु, यह अर्थ भी कुछ सगत प्रतीत नहीं होता।
आगमोद्धारक पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज का अर्थ तो बहुत ही भ्रान्ति-पूर्ण है । श्रापने लिखा है-'विनीत को ज्ञान दे।' यह वाक्य क्या अभिप्राय रखता है, हम नहीं समझ सके । घिनीत को ज्ञान देना, कोई दोष तो नहीं है ? कहीं भूल से 'न' तो नहीं छुट गया है ? दुछु पडिच्छियं का अर्थ अविनीत को ज्ञान देना किया है। यह भी ठीक नहीं; क्योंकि पडिच्छियं का अर्थ लेना है, देना नहीं ।
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