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बोल-संग्रह
--- ४२७ (१०) वेदिकाबद्ध-~-दोनों घुटनों के ऊपर, नीचे पार्श्व में अथवा गोदी में हाथ रख कर या किसी एक घुटने को दोनों हाथों के बीच में करके वन्दना करना।
(११) भय-प्राचार्य आदि कहीं गच्छ से बाहर न करदें, इस भय से उनको वन्दना करना ।।
(१२) भजमान-प्राचार्य हम से अनुकूल रहते हैं अथवा भविष्य में अनुकूल रहेंगे, इस दृष्टि से वन्दना करना ।
(१३) मैत्री-प्राचार्य श्रादि से मैत्री हो जायगी, इस प्रकार मैत्री के निमित्त से वन्दना करना।
(१४ गौरव-दूसरे साधु यह जान लें कि यह साधु वन्दन-विषयक समाचारी में कुशल है, इस प्रकार गौरव की इच्छा से विधि पूर्वक वन्दना करना।
(१५) कारण-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सिवा अन्य ऐहिक वस्त्र पात्र आदि वस्तुओं के लिए वन्दना करना, कारण दोष है ।
(१६) स्तन्य-दूसरे साधु और श्रावक मुझे वन्दना करते देख न लें, मेरी लघुता प्रकट न हो, इस भाव से चोर की तरह छिपकर वन्दना करना ।
(१७) प्रत्यनीक-गुरुदेव अाहारादि करते हों उस समय वन. ना करना, प्रत्यनीक दोष है । - (१८) रुष्ट-क्रोध से जलते हुए वन्दन करना ।
(१६) तर्जित-गुरुदेव को तर्जना करते हुए वन्दन करना । तर्जना का अर्थ है-'तुम तो काष्ठ मूर्ति हो, तुमको वन्दना करें या न करें, कुछ भी हानि लाभ नहीं ।'
(२०) शठ-विना भाव के सिर्फ दिखाने के लिए बन्दन काना अथवा बीमारी आदि का झूठा बहाना बना कर सम्यक् प्रकार से वन्दन न करना।
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