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भयादि-सूत्र
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प्रवृत्ति ही संयम है । प्रस्तुत सूत्र में शुभ प्रवृत्ति रूप योग ही ग्राह्य है । उसी का संग्रह संयमी जीवन की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रख सकता है।
- युज्यन्ते इति योगाः मनोवाक्कायव्यापाराः, ते चेह प्रशस्ता एव विवक्षिताः । श्राचार्य श्रभयदेव, समवायांग टीका |
प्रश्न है, बालोचनादि को संग्रह क्यों कहा गया है ? ये तो संग्रह के निमित्त हो सकते हैं, स्वयं संग्रह नहीं । आप ठीक कहते हैं । यहाँ संग्रह शब्द की संग्रह निमित्त में ही लक्षणा है । 'प्रशस्तयोग संग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते । श्रभयदेव, समवायांग टीका । योग संग्रह की साधना में जहाँ कहीं भूल हुई हो, उसका प्रतिक्रमण यहाँ भी है ।
तेतीस आशातना अरिहन्त की शातना से लेकर चौदह ज्ञान की आशा तना तक तेतीम श्राशातना, मूल सूत्र में वर्णन की गई हैं । कुछ टीकाकार यहाँ पर भी श्राशातना से गुरुदेव की ही तेतीस श्राशातना लेते हैं । गुरुदेव की तेतीस प्राशातनाओं का वर्णन परिशिष्ट में दिया गया है ।
जैनाचार्यों ने शातना शब्द की निरुक्ति बड़ी ही सुन्दर की है । सम्यग्दर्शन आदि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को प्राय कहते हैं और शातना का अर्थ - खण्डन करना है । गुरुदेव आदि पूज्य पुरुषों का अपमान करने से सम्यग्दर्शन आदि सद्गुणों की शातना = खण्डना होती है । 'प्रायः सम्यग्दर्शनाथ वाप्तिलक्षणस्तस्य शातना - खण्डनं निरुक्रादाशातना । ' -- आचार्य श्रभयदेव, समवायांग टीका । 'आसातणा णामं नाणादि आयस्स सातणा । यकारलोपं कृत्वा श्राशातना भवति ।' - श्राचार्य जिनदास, श्रावश्यकचूर्णि ।
अरिहन्तों की आशातना
सूत्रोक्त तेतीस श्राशातनात्रों में पहली श्राशातना अरिहन्तों की है । जैन शासन के केन्द्र अरिहन्त ही हैं, अतः सर्व प्रथम उनका ही उल्लेख
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