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श्रमण-सूत्र
इहलोक और परलोक की आशातना
इहलोक और परलोक का अभिप्राय समझ लेना आवश्यक है । मनुष्य के लिए मनुष्य इह लोक है और नारक, तिथंच तथा देव परलोक हैं । स्वजाति का प्राणी-वर्ग इह लोक कहा जाता है और विजातीय प्राणी-वर्ग परलोक । इहलोक और परलोक की असत्य प्ररूपणा करना, पुनर्जन्म आदि न मानना, नरकादि चार गतियों के सिद्धान्त पर विश्वाम न रखना, इत्यादि इहलोक और परलोक की पाशातना है । लोक की अशातना ___ लोक, संसार को कहते हैं । उसकी अशातना क्या ? लोक की अाशातना से यह अभिप्राय है कि देवादि-सहित लोक के सम्बन्ध में मिथ्या प्ररूपणा करना, उसे ईश्वर आदि के द्वारा बना हुअा मानना, लोकसम्बन्धी पौराणिक कल्पनाओं पर विश्वास करना; लोक की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय-सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं का प्रचार करना । प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की आशातना
प्राण, भूत आदि शब्दों को एकार्थक माना गया है। सब का अर्थ जीव है । आचार्य जिनदास कहते हैं-'एगट्ठिता वा एते ।' परन्तु श्राचार्य जिनदास महत्तर और हरिभद्र आदि ने उक शब्दों के कुछ विशेष अर्थ भी स्वीकार किए हैं । द्वीन्द्रिय अादि जीवों को प्राण ओर पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों को भून कहा जाता है । समस्त मसारी प्राणियों के लिये जीव और ससारी तथा मुक सब अन्तानन्त जीवों के लिए सत्त्व-शब्द का व्यवहार होता है । “प्राणिनः द्वीन्द्रियादयः। भूतानि पृथिव्यादय"। जीवन्ति जीवा-श्रायुः कर्मानुभवयुकाः सर्व एव"। सत्वाः-सांसारिकसंसारातीतमेदाः।"
-अावश्यक शिष्य-हिता टीका । प्राण, भूत आदि शब्दों की व्याख्या का एक ओर प्रकार भी है, जो प्रायः आज भी सर्वमान्य रूप में प्रचलित है और आगम साहित्य के प्राचीन टीकाकारों को भी मान्य है। द्वीन्द्रिय अादि तीन विकलेन्द्रिय
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