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श्रमण सूत्र
"सिद्धाऽतिगुण' करते हैं। अतिगुण का भाव है-'उत्कृष्ट, अँसाधारण गुण ।' बत्तीस योग-संग्रह
(१) गुरुजनों के पास दोषों की आलोचना करना । २) किसी के दोषों की आलोचना सुनकर और के पास न कहना (३) संकट पड़ने पर भी धर्म में दृढ़ रहना ( ४ ) अासक्ति रहित तप करना (५) सूत्रार्थ ग्रहणरूप ग्रहण-शिक्षा एवं प्रतिलेखना आदि रूप श्रासेवनाआचार शिक्षा का अभ्यास करना (६) शोभा श्रृंगार नहीं करना (७) पूजा प्रतिष्ठा का मोह त्याग कर अज्ञात तप करना ८) लोभ का त्याग (६) तितिक्षा ( १ ) आर्जव - सरलता ( ११) शुचिः संयम एवं सत्य की पवित्रता ( १२ ) सम्यक्त्व शुद्धि ( १३. समाधि - प्रसन्न चित्तता ( १४ ) प्राचार पालन में माया न करना ( १५) विनय (१६) धैर्य (१७) संवेग = सांसारिक भोगों से भय अथवा मोक्षा भिलाषा ( १८) माया न करना ( १६) सदनुष्ठान (२०) सवर = कपाश्रव को रोकना (२१) दोषों की शुद्धि करना ( २२ ) काम भोगों से विरक्ति । २३) मूलगुणों का शुद्ध पालन ( २४.) उत्तरगुणों का शुद्ध पालन २५.) व्युत्सर्म करना ( २६.) प्रमाद न करना (२७) प्रतिक्षण संयम यात्रा में सावधानी रखना ( २८ ) शुभ ध्यानः । २६ ) मारणान्तिक वेदना होने पर भी अधीर न होना ( ३० ) संग का परित्याग करना ( ३१ ) प्रायश्चित्त ग्रहण करना ( ३२ ) अन्त समय में सलेखना करके अाराधक बनना।
समवायांग ] ___प्राचार्य जिनदास बत्तीस योग-स ग्रह का एक दूसरा प्रकार भी लिखते हैं। उनके उल्लेखानुसार धर्म ध्यान के सोलह भेद और इसी प्रकार शुक्ल ध्यान के सोलह भेद, सब मिल कर बत्तीस योगसंग्रह के भेद हो जाते हैं । 'धम्मो सोलसक्छि एवं सुक्कपि ।
मन, वचन और काय के व्यापार को योग कहते हैं। शुभ और अशुभ भेद से योग के दो प्रकार हैं। अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में
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