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श्रमण-सूत्र
खंती मुत्ती अज्जब,
मध्य तह लाघवे तवे चेव संजम चियागऽकिंचण,
बोद्धव्वे बंभचेरे य । प्राचार्य हरिभद्र लाघव का अप्रतिबद्धता-अनासक्तता और त्याग का संयमी साधकों को वस्त्रादि का दान, ऐसा अर्थ करते हैं । 'लाधव-अप्रतिबद्धता, त्यागः-संयतेभ्यो वस्त्रादिदानम् ।' अावश्यकशिष्यहिता टीका।
आचार्य अभयदेव, समवायांग सूत्र की टीका में लाघव का अर्थ द्रव्य से अल्ल उपधि रखना और भाव से गौरव का त्याग करना, करते हैं---'लाघव द्रव्यतोऽल्पोंपधिता, भावतो गौरव-त्यागः ।'
श्री अभयदेव ने 'चियाए–'त्याग' का अर्थ सब प्रकार के प्रासंगों का त्याग अथवा साधुओं को दान करना, किया है। 'त्यागः सर्वसङ्गाना, संविग्न मनोज्ञसाधुदानं वा ।' ___ स्थानांग सूत्र के दशम स्थान में दशविध श्रमण-धर्म की व्याख्या करते हुए श्री अभयदेव ने 'चियाए' का केवल सामान्यतः दान अर्थ ही किया है 'चियाएत्ति त्यागो दानधर्म इति ।'
प्राचार्य जिनदास, अावश्यक चूणि में श्रमण धर्म का उल्लेख इस प्रकार करते हैं-'उत्तमा खमा, मदव, अजव, मुत्ती, सोयं, सच्चों, संजमो, तवो, अकिंचणत्तणं, बंभचेमिति ।' प्राचार्य ने क्षमा से पूर्व उत्तम शब्द का प्रयोग बहुत सुन्दर किया है। उसका सम्बन्ध प्रत्येक धम से है, जैसे उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम प्रार्जव आदि । क्षमा श्रादि धर्म तभी हो सकते हैं, जब कि वे उत्तम हों, शुद्धभाव से किए गए हों, उनमें किसी प्रकार से प्रवंचना का भाव न हो । प्राचार्य श्री उमास्वाति भी तत्त्वार्थ सूत्र में क्षमा आदि से पूर्व उत्तम विशेषण का उल्ले ख करते हैं ।
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