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भयादि-सूत्र
( ३ ) दीर्घ कोप = चिरकाल तक क्रोध रखना | (१०) पृष्ट मौसिकत्व = • पीठ पीछे निन्दा करना ।
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( ११ ) श्रभितणाव भाषण - सशंक होने पर भी निश्चित भाषा
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बोलना ।
( १२ ) नवाधिकरण-करण = नित्य नए कलह करना ।
(१३) उपशान्तकलहोदीरण = शान्त कलह को पुनः उत्तेजित
करना ।
( १४ ) कालस्वाध्याय = काल में स्वाध्याय करना ।
( १२ ) सरजस्कप ( शि-भित्ता ग्रहण = सचित्तरज सहित हाथ श्रादि से भिक्षा लेना ।
(१६) शब्दकरण = पहर रात बीते विकाल में जोर से बोलना । ( १७ ) झाकरण - गण-भेदकारी अर्थात् संघ में फूट डालने वाले वचन बोलना । ( १८
कलह करण = श्राक्रोश आदि रूप कलह करना । ( 18 ) सूर्य प्रमाण भोजित्न = दिन भर कुछ न कुछ खाते-पीते रहना । २० ) एत्रणाऽसमितत्व : = एषणा समिति का उचित ध्यान न
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'रखना ।
जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शान्ति हो, आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र मोक्षमार्ग में अवस्थित रहे, उसे समाधि कहते हैं । और जिस कार्य से चित्त में अप्रशस्त एवं अशान्त भाव हो, ज्ञानादि मोक्षमार्ग से ग्रात्मा भ्रष्ट हो उसे समाधि कहते हैं । उपर्युक्त बीस कार्यों के श्राचरण से अपने और दूसरे जीवों को समाधि भाव उत्पन्न होता है, साधक की श्रात्मा दूषित होती है, और उसका चारित्र - मलिन होता है, अतः इन्हें समाधि कहा जाता है ।
'समाधान समात्रिः - चेतसः स्वास्थ्यं, मोक्षमार्गेऽ वस्थितिरित्यर्थः । न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि - श्राश्रया भेदाः पर्याया असमाधिस्थानानि ।' प्राचार्य हरिभद्र