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भयादि-सूत्र
१८७ देव शब्द से चौवीस तीर्थकर देवों का भी ग्रहण करते हैं । इस अर्थ के मानने पर अतिचार यह होगा कि--उनके प्रति श्रादर, श्रद्धाभाव न रखना; उनकी आज्ञानुसार न चलना, श्रादि आदि । पाँच महाव्रतों की २५ भावनाएँ ____महाव्रतों का शुद्ध पालन करने के लिए, शास्त्रों में प्रत्येक महाव्रत की पाँच भावना बतलाई गयी हैं । भावनाओं का स्वरूप बहुत ही हृदयग्राही एवं जीवनस्पर्शी है । श्रमण-धर्म शुद्ध पालन करने के लिए भावनाओं पर अवश्य ही लक्ष्य देना चाहिए । प्रथम अहिंसा महाव्रत की ५ भावना
(१ ) ईयर्यासमिति - उपयोग पूर्वक गमनागमन करे ( २ ) अालोकित पान भोजन = देख भाल कर प्रकाशयुक्त स्थान में आहार करे (३) अादान निक्षेप समिति = विवेक पूर्वक पात्रादि उठाए तथा रक्खे (४ ' मनोगुप्ति = मन का सौंयम (५) वचनगुति = वाणी का सयम । द्वितीय सत्य महाव्रत की भावना
(१) अनुविचिन्त्य भाषणता = विचार पूर्वक बोलना ( २ ) क्रोधविवेक = क्रोध का त्याग ( ३ ) लोभ-विवेक =लोभ का त्याग (४) भय-विवेक = भय का त्याग (५) हास्य-विवेक =हँसी मजाक का त्याग । तृतीय अस्तेय महाव्रत की ५ भावना
(१) अवबहानुज्ञापना = अवग्रह अर्थात् वसति लेते समय उसके स्वामी को अच्छी तरह जानकर याज्ञा माँगना (२) अवग्रह सीमापरिज्ञानता= अवग्रह के स्थान की सीमा का ज्ञान करना ( ३ ) अवग्रहानुग्रहणता= स्वयं अवग्रह की याचना करना अर्थात् वसतिस्थ तृण, पट
आदि अवग्रह-स्वामी की प्राज्ञा लेकर ग्रहण करना ( ४ ) गुरुजनों तथा अन्य साधमिकों की आज्ञा लेकर ही सबके सयुक्त भोजन में से भोजन करना (५) उपाश्रय में रहे हुए पूर्व साधमिकों की आज्ञा लेकर ही वहाँ रह्ना तथा अन्य प्रवृत्ति करना ।
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