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भयादि-सूत्र
२७६ (२) अनर्थ किया-विना किसी प्रयोजन के किया जानेवाला पार कम अनर्थ क्रिया कहलाता है । व्यर्थ ही किसी को सताना, पीड़ा देना ।
(३) हिंसा क्रिया--अमुक व्यक्ति मुझे अथवा मेरे स्नेहियों को कष्ट देता है, देगा, अथवा दिया है--यह सोच कर किसी प्राणी की हिंसा करना, हिंसा क्रिया है।
(४) अकस्मात क्रियाशीघ्रतावश विना जाने हो जाने वाला पाप, अकस्मात् क्रिया कहलाता है। बाणादि से अन्य की हत्या करते हुए अचानक ही अन्य किसी की हत्या हो जाना।
(५)दृष्टि विपर्यास क्रिया-मति-भ्रम से होने वाला पाप । चौरादि के भ्रम में साधारण अनपराधी पुरुष को दण्ड दे देना।
(६) मृषा क्रिया--झूठ बोलना । (७) अदत्तादान क्रिया-चोरी करना ।
(८) अध्यात्म क्रिया-बाह्य निमित्त के बिना मन में होने वाला शोक यादि का दुर्भाव ।
(६) मान क्रिया--अपनी प्रशंसा करना, घमण्ड करना । (१०) मित्र क्रिया-प्रियजनों को कठोर दण्ड देना। (११) माया क्रिया-दम्भ करना । (१२) लोभ क्रिया-लोभ करना ।
(१३) ईर्यापथिकी क्रिया-अप्रमत्त विवेकी संयमी को गमनागमन से लगने वाली किया । चौदह भूतग्राम = जीवसमूह ___सूक्ष्म एकेन्द्रिय, आदर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असशी पञ्चन्द्रिय और सजी पञ्चन्द्रिय । इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त--कुल चौदह भेद होते हैं। इनकी विराधना करना, किसी भी प्रकार की पीड़ा देना, अतिचार है ।
कुछ प्राचार्य भूतग्राम से चौदह गुण स्थानवी जीव समूहों का उल्लेख करते हैं। देखिए-पावश्यक चूण तथा हरिभद्र कृत श्रावश्यक टीका।
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