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भयादि-सूत्र
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बारह भिक्षु-प्रतिमा
(१) प्रथम प्रतिमाधारी भिक्षु को एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है । साधु के पात्र में दाता द्वारा दिए जाने वाले अन्न और जल की धारा जब तक अखण्ड बनी रहे, उसका नाम दत्ति है। धारा खण्डित होने पर दत्ति की समाप्ति हो जाती है। जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वहीं से लेना चाहिए. किन्तु जहाँ दो तीन आदि अधिक व्यक्ति पों के लिए भोजन बना हो, वहाँ से नहीं लेना। इसका समय एक महीना है ।
(२-७) दूसरी प्रतिमा भी एक मास की है। दो दत्ति आहार की, दो दत्ति पानी की लेनी । इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी और सातवी प्रतिमाओं में क्रमशः तीन, चार, पाँच, छह और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही पानी की ग्रहण की जाती हैं । प्रत्येक प्रतिमा का समय एक-एक मास है। केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही ये क्रमशः द्विमासिकी. त्रिमासकी, चतुर्मासिकी, पञ्चमासकी, पण्मासिकी, और सप्तमासिकी कहलाती हैं।
(८) यह अाठवीं प्रतिमा सप्तरः त्रि = सात दिन रात की होती है । इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करना होता है। गाँव के बाहर उत्तानासन (अाकाश की ओर मुँह करके सीधा लेटना), पाश्र्वासन ( एक करवट से लेटना) अथवा निपद्यासन (पैरों को बराबर करके बैठना) से ध्यान लगाना चाहिए। उपसर्ग पाए तो शान्त चित्त से सहन करना चाहिए ।
(६) यह प्रतिमा भी सप्तरात्रि की होती है। इसमें चौविहार बेलेबेले पारणा किया जाता है । गाँव के बाहर एकान्त स्थान में दण्डासन, लगुडासन अथवा उत्कटुकासन से ध्यान किया जाता है।
(१०) यह भी सप्तरात्रि की होती है। इसमें चौविहार तेले-तेले पारणा किया जाता है। गाँव के बाहर गोदोहनासन, वीरासन अथवा श्राम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है ।
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