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श्रमण-सूत्र
हित-शिक्षा नहिं ग्रही द्वेष से नाक सिकोड़ा, बना घोर अविनीत 'अहं' से नाता जोड़ा। हा। इस कलुषित कर्म पर,
बार-बार धिक्कार है। गुरु-सेवा ही मोक्ष का
एक मात्र वर द्वार है।
अष्टादश-पाप पाप-पंक अष्टादश प्रतिपल,
आत्मा मलिन बनाते हैं। भीम भयंकर भव-अटवी में,
- भ्रान्त बना भटकाते हैं। पाप-शिरोमणि हिंसा से जग
जीव नित्य भय खाते हैं। मृषावाद से मानव जग में,
निज विश्वास गँवाते हैं। चौर्यवृत्ति अति ही अधमाधम,
निज-पर सब को दहती है। मैथुनरत पुरुषों की बुद्धि,
निशदिन विकृत रहती है । संसृति-मूल परिग्रह भीषण,
ममताऽऽसक्ति बढ़ाता है। आकुल-व्याकुल जीवन रहता,
आखिर नरक पठाता है। क्रोध मान से सजन जन भी,
झटपट बैरी हो जाने।
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