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४१८.
श्रमण-सूत्र त्तियों को गिनने के लिए अँगुली हिलाना, तथा दूसरे व्यापार के लिए भौंह चला कर संकेत करना ।
(१८) वारुणी दोष-जिस प्रकार तैयार की जाती हुई शराब में से बुड़-बुड़ शब्द निकलता है, उसी प्रकार अव्यक्त शब्द करते हुए खड़े रहना । अथवा शराबी की तरह झूमते हुए खड़े रहना।
(१६) प्रेक्षा दोष-पाठ का चिन्तन करते हुए वानर की तरह श्रोटों को चलाना ।
[प्रवचनसारोद्धार ] ___ योग शास्त्र के तृतीय प्रकाश में श्रीहेमचन्द्राचार्य ने कायोत्सर्ग के इक्कीस दोष बतलाए हैं। उनके मतानुसार स्तंभ दोष, कुड्य दोष, अंगुली दोष और भ्र. दोष चार हैं; जिनका ऊपर स्तम्भकुड्य दोष और अंगुलिकाभ्र, दोष नामक दो दोषों में समावेश किया गया है।
साधु की ३१ उपमार (१) उत्तम एवं स्वच्छ कांस्य पात्र जैसे जल-मुक्त रहता है, उस पर पानी नहीं ठहरता है, उसी प्रकार साधु भी सांसारिक स्नेह से मुक्त होता हैं।
(२) जैसे शंख पर रंग नहीं चढ़ता, उसी प्रकार साधु राग-भाव से रंजित नहीं होता।
(३; जैसे कछुवा चार पैर और एक गर्दन-इन पाँचों अवयवों को संकोच कर, खोपड़ी में छुपाकर सुरक्षित रखता है, उसी प्रकार साधु भी संयम क्षेत्र में पाँचों इन्द्रियों का गोपन करता है, उन्हें विषयों की श्रोर बहिमुख नहीं होने देता।
(४) निर्मल सुवर्ण जैसे प्रशस्त रूपवान् होता है, उसी प्रकार साधु भी रागादि का नाश कर प्रशस्त अात्मस्वरूप वाला होता है।
. (५) जैसे कमल-पत्र जल से निलिप्त रहता है, उसी प्रकार
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