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बोल संग्रह
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साधु, अनुकूल विषयों में आसक्त न होता हुआ उनसे निर्लिप्त रहता है।
(६) चन्द्र जैसे सौम्य ( शीतल ) होता है, उसी प्रकार साधु स्वभाव से सौम्य होता है। शान्त-परिणामी होने से किसी को क्लेश नीं पहुँचाता।
(७) सूर्य जैसे तेज से दीप्त होता है, उसी प्रकार साधु भी तपके तेज से दीत रहता है ।।
(८) जैसे सुमेरु पर्वत स्थिर है, प्रलयकाल में भी चलित नहीं होता, उसी प्रकार साधु संयम में स्थिर रहता हुअा अनुकूल तथा प्रतिकूल किसी भी परीषह से विचलित नहीं होता। .. (६) जिस प्रकार समुद्र गम्भीर होता है, उसी प्रकार साधु भी गम्भीर होता है, हर्ष और शोक के कारणों से चित्त को चंचल नहीं होने देता।
(१०) जिस प्रकार पृथ्वी सभी बाधा पीड़ाएँ सहती है, उसी प्रकार साधु भी सभी प्रकार के परीषह एवं उपसर्ग सहन करता है ।
(११) राख की झाँई पाने पर भी अग्नि जैसे अन्दर प्रदीप्त रहती है और बाहर से मलिन दिखाई देती है। उसी प्रकार साधु तप से कृश होने के कारण बाहर से म्लान दिखाई देता है, किन्तु अन्तर में शुभ भावना के द्वारा प्रकाशमान रहता है ।
- (१२) घी से सींची हुई अग्नि जैसे तेज से देदीप्यमान होती है, उसी प्रकार साधु ज्ञान एवं तप के तेज से दीप्त रहता है। - (१३) गोशीर्ष चन्दन जैसे शीतल तथा सुगन्धित होता है, उसी प्रकार साधु कषायों के उपशान्त होने से शीतल तथा शील की सुगन्ध से वासित होता है। ___(१४) हवा न चलने पर जैसे जलाशय की सतह सम रहती है, ऊँची-नीची नहीं होती; उसी प्रकार साधु भी समभाव वाला होता है। सम्मान हो अथवा अपमान, उसके विचारों में चढ़ाव-उतार नहीं होता।
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