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अतिचार-आलोचना
ज्ञान-शुद्धि साधनों के होते भी न ज्ञानाभ्यास किया स्वय,
। दूसरों को भी न यथायोग्यता कराया हो। ज्ञान के नशे में चूर लड़ता-लड़ाता फिरा,
ज्ञानी जनों को न शीष सादर झुकाया हो। सूत्र और अर्थ नष्ट-भ्रष्ट किया घटा - बढ़ा,
तत्त्वशून्य तर्कणा में मस्तक लड़ाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, श्रेष्ठ ज्ञान - रत्न में जो दूषण लगाया हो ॥
दर्शन-शुद्धि वीतराग - वाणी पै न श्रद्धाभाव दृढ़ रक्खा,
फंस के कुतर्कजाल शङ्काभाव लाया हो । नानाविध पाखंडों के मोहक स्वरूप देख,
संसारी सुखों के प्रति चित्त ललचाया हो । धर्माचार - फल के सम्बन्ध में सशंक बना,
मन को पाखंडियों की पूजा में भ्रमाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें,
सम्यक्त्व-सुरत्न में जो दूषण लगाया हो ।
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