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द्वादशावत गुरुवन्दन-सूत्र
२७७ तो साधक के जीवन को कुचल देती हैं, हीन बना देती हैं। विकासोन्मुख धर्म साधना स्वतन्त्र इच्छा चाहती है, मन की स्वयं कार्य के प्रति होने चाली अभिरुचि चाहती है । यही कारण है कि जैन धर्म की साधना में सर्वत्र 'इच्छामि पडिकामामि, इच्छामि खमासमयो' अगदि के रूप में सर्वप्रथम 'इच्छामि' का प्रयोग होता है । 'इच्छामि' का अर्थ है. मैं स्वयं चाहता हूँ, अर्थात् यह मेरी स्वयं अपने हृदय की स्वतन्त्र भावना है। ___ 'इच्छामि' का एक और भी अभिप्राय है । शिष्य गुरुदेव के चरणों में विनम्र भाव से प्रार्थना करता है कि 'भगवन् ! मैं आपको वन्दन करने की इच्छा रखता हूँ । अतः श्राप उचित समझे तो आज्ञा दीजिए। श्रापकी याज्ञा का आशीर्वाद पाकर मैं धन्य धन्य हो जाऊँगा।'
ऊपर की वाक्यावली में शिष्य वन्दन के लिए केवल अपनी अोर से इच्छा निवेदन करता है, सदाग्रह करता है, दुराग्रह नहीं । नमस्कार भी नमस्करमीय की इच्छा के अनुसार होना चाहिए, यह है जैन संस्कृति के शिष्टाचार का अन्तहृदय | यहाँ नमस्कार में भी इच्छा मुख्य हैं, उद्दण्डतापूर्ण बलाभियोग एवं दुराग्रह नहीं । श्राचार्य जिनदास कहते हैं---'एस्थ वंदितुमित्यावेदनेन अप्पच्छंदता परिहरिताः ।' क्षमाश्रमण
'श्रमु' धातु तप और खेद अर्थ में व्यवहृत होती हैं । अतः जो तपश्चरण करता है, एवं संसार से सर्वथा निर्विण्ण रहता है, वह श्रमण कहलाता है। क्षमाप्रधान श्रमण क्षमाश्रमण होता है । क्षमाश्रमण में क्षमा से 'मार्दव आदि दशविधः श्रमण धर्म का ग्रहण हो जाता है । अस्तु, जो श्रमण क्षमा, मार्दच आदि महान् आत्मगुणों से सम्पन्न हैं, अपने धर्म-पथ पर दृढ़ता के साथ अग्रसर हैं, वे ही वन्दनीय हैं। यह क्षमाश्रमण शब्द, किसको बन्दन करना चाहिए-इस पर बहुत सुन्दर प्रकाश डालता है।
, 'खमागहणे य मद्दवादयो सूइता'- प्राचार्य जिनदास ।
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