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श्रमण सूत्र
वचन गुप्ति आवश्यक यह है कि वन्दन करते समय बीच में और कुछ नहीं बोलना । वचन का व्यापार एकमात्र वन्दन क्रिया के पाठ में ही लगा रहना चाहिए | और उच्चारण अस्खलित, स्पष्ट एवं सस्वर होना चाहिए ।
काय गुप्ति आवश्यक यह है कि शरीर को इधर-उधर आगे-पीछे न हिलाकर पूर्ण रूप से नियंत्रित रखना चाहिए। शरीर का व्यापार वन्दन क्रिया के लिए ही हो, अन्य किसी कार्य के लिए नहीं । वन्दन करते समय शरीर से वन्दनातिरिक्त क्रिया करना निषिद्ध है । चार शिर
अवग्रह में प्रवेश कर क्षामणा करते हुए शिष्य एवं गुरु के दो शिर परस्पर एक दूसरे के सम्मुख होते हैं, यह प्रथम खमासमणो के दो शिरः सम्बन्धी आवश्यक हैं । इसी प्रकार दूसरे खमासमणो के दो शिरः सम्बन्धी आवश्यक भी समझ लेने चाहिएँ । इस सम्बन्ध में प्राचार्य हरिभद्र आवश्यक नियुक्ति १२०२ वीं गाथा की व्याख्या में स्पष्ट लिखते हैं— 'प्रथम प्रविष्टस्य क्षामणाकाले शिष्याचार्यशिरोद्वयं पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना । श्राचार्य अभयदेव भी समवायांग सूत्र की वृत्ति में ऐसा ही उल्लेख करते हैं ।
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प्रवचन सारोद्धार की टीका में श्री सिद्धसेनजी शिर का शिरोवनमन में लक्षणा मानते हैं और कहते हैं कि जहाँ दामणाकाल में 'खामेति खमासमणो देवसियं वइक्कमं' कहता हुआ शिष्य अपना मस्तक गुरु चरणों में झुकाता है, वहाँ गुरुदेव भी 'अहमवि खामेमि तुमे' कहकर अपना शिरोवनमन करते हैं ।
श्री सिद्धसेनजी एक और मान्यता उद्धृत करते हैं, जो केवल शिष्य के ही चार शिरोवनमन की है। एक शिरोवनमन ' संफास' कहते हुए और दूसरा क्षामणा काल में 'खामेमि खमासमणो' कहते हुए । 'अन्यत्र पुनरेव दृश्यते - संफासनमणे एर्ग, खामणानमणे सीसस्स बीयं । एवं बीयप से विदोनि ।'
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