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श्रमण-सूत्र
-सभी जीव कर्मवश चौदह राजुप्रमाण लोक में परिभ्रमण करते हैं, उन सब को मैंने खमाया है, अतएव वे सब मुझे भी क्षमा करें। जं जं मणेण बद्धं,
जंजवाएण भासियं पावं । जं जं कारण कयं,
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥१६॥
भावार्थ [मिच्छा मि दुक्कडं] मैंने जो जो पाप मन से संकल्प द्वारा बाँधे हों, वाणी से पापमूलक वचन बोले हो, और शरीर से पापाचरमा' किया हो, वह सब पाप मेरे लिए मिथ्या हो ।
नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उज्झायाणं
नमो लोए सन्य-साहूणं ! एसो पंच - नमुक्कारो,
सव्व- पाव- प्पणासणो । मंगलाणं च सव्यसि
पदमं हवइ मंगलं ॥
भावार्थ श्री अरिहंतों को नमस्कार हो, श्री सिद्धों को नमस्कार हो,
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