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संस्तार पौरुषी सूत्र
भावार्थ [एकत्व और अनित्य भावना ] मुनि प्रसन्न चिच से अपने श्रापको समझाता है कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी दूसरे का नहीं हूँ।
-सम्यग ज्ञान, सम्यग दर्शन, उपलक्षण से सम्यक चारित्र से परिपूर्ण मेरा श्रात्मा ही शाश्वत है, सत्य सनातन है; अात्मा के सिवा अन्य सब पदार्थ संयोगमात्र से मिले हैं।
-जीवात्मा ने श्राज तक जो भी दुःखपरंपरा प्राप्त की है, वह सब पर पार्थों के संयोग से ही प्राप्त हुई है। अतएव मैं संयोगसम्बन्ध का सर्वथा परित्याग करता हूँ। खमिश्र खमावि मइ खमह,
सवह जीव-निकाय । सिद्धह साख आलोयणह,
मुज्झह बइर न भाव ॥१४॥ सव्वे जीवा कम्मवस,
चउदह-राज झमंत । ते मे सव्व खमाविश्रा,
मुज्झ वि तेह खमंत ॥१५॥
भावार्थ [समापना] हे जीवगण ! तुम सब खमण खामणा करके मुझ पर क्षमाभाव करो। सिद्धों को साक्षी रख कर मालोचना करता हूँ किमेरा किसी से भी वैरभाव नहीं है।
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