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श्रमण-सूत्र
निवेदन करता है । गुरुदेव की ओर से श्राज्ञा मिल जाने के बाद पुनः अवनत काय से 'अणुजाराह मे मिउग्गहं' कह कर अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगता है । यह प्रथम अवनत आवश्यक है ।
अवग्रह से बाहर आकर प्रथम खमासमणो पूर्ण कर लेने के बाद जब दूसरा खमासमणो पढ़ा जाता है, तत्र पुनः इसी प्रकार विनत होकर वंदन करने के लिए इच्छा निवेदन करना एवं श्रवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगना, यह दूसरा अवनत श्रावश्यक है । दो प्रवेश
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गुरुदेव की ओर से श्रवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा मिल जाने के बाद मुख से निसीहि कहता हुआ एवं रजोहरण से श्रागे की भूमि को प्रमार्जन करता हुआ जब शिष्य श्रवग्रह में प्रवेश करता है, तब प्रथम प्रवेश आवश्यक होता है ।
इसी प्रकार एक बार अवग्रह से बाहर ग्राकर दूसरा समासमणो पढ़ते समय जब पुनः दूसरी बार अवग्रह में प्रवेश करता है, तब दूसरा प्रवेश आवश्यक होता है ।
बारह आवर्त
गुरुदेव के चरणों के पास उकडू या गोदुह आसन से बैठे, रजोहरण एक चोर बराबर में रख छोड़े । पश्चात् दोनों घुटने टेककर दोनों हाथों को लम्बा करके गुरु चरणों को " हाथ की दशों अंगुलियों से स्पर्श करता हुआ 'अ' अक्षर कहे और फिर दशों अँगुलियों से अपने मस्तक का स्पर्श करता हुआ 'हो' अक्षर कहे, यह प्रथम आवर्त है 'काय' और 'काय' के भी दो आवर्त समझ लेने चाहिएँ ।
।
इसी प्रकार
For Private And Personal
इसके बाद कमल मुद्रा में दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाए और खमणिजो भे से लेकर दिवसों वइक्कतो तक पाठ बोले । अनन्तर दोनों हाथों को लम्बा करके दशों अँगुलियों से गुरुचरणों को
१ कुछ आचार्य कमल - मुद्रा से कहते हैं ।