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श्रमण-सूत्र
- अपने मन को मारना सहज नहीं है । स्वाने के लिए बैठना और फिर भी मनोऽनुकूल नहीं खाना, कुछ साधारण बात नहीं है।
श्रायंबिल भी साधक की इच्छानुसार चतुविधाहार एवं त्रिविधाहार किया जा सकता है । चतुर्विधाहार करना हो तो 'चउठिवह पि त्राहारं, असएं पाणं, खाइम, साइमं, बोलना चाहिए। यदि त्रिविधाहार करना हो तो 'तिविहं पि आहारं असणं खाइमं साइमं पाठ कहना चाहिए। आयंबिल द्विविधाहार नहीं होता।
आयंबिल में अाठ श्रागार माने गए हैं । पाठ में से पाँच आगार तो पूर्व प्रत्याख्यानों के समान ही हैं। केवल तीन भागार ही ऐसे हैं, जो नवीन हैं । उनका भावार्थ इस प्रकार है:.. (१) लेपालेप-प्राचाम्ल व्रत में ग्रहण न करने योग्य शाक तथा घृत श्रादि विकृति से यदि पात्र अथवा हाथ आदि लिप्त हो. और दातार गृहस्थ यदि उसे पोंछकर उसके द्वारा प्राचाम्ल-योग्य भोजन बहराए. तो ग्रहण कर लेने पर व्रत भंग नहीं होता है।।
लेपालेप' शब्द लेप और अलेप से समस्त होकर बना है । लेप का अर्थ घृतादिसे पहले लिप्त होना है। और अलेप का अर्थ है बाद में उसको पोंछकर अलिप्तकर देना। पोंछ देने पर भी विकृति का कुछ न कुछ अंश लिप्त रहता ही है। अतः आचाम्ल में लेपालेप का श्रागार रक्खा जाता है। लेप अलेपश्च लेपाले तस्मादन्यत्र, भाजने विकृत्याद्यवयवसद्भावेऽपि न भङ्ग इत्यर्थः। ---प्रवचन सारोडार वृत्ति । -- (२) उत्क्षिप्त-विवेक---शुष्क अोदन एवं रोटी आदि पर गुड़ तथा
शक्कर आदि अद्रव - सूखी विकृति पहले से रक्खी हो । प्राचाम्लव्रतधारी मुनि को यदि कोई वह विकृति उठाकर रोटी श्रादि देना चाहे तो ग्रहण की जा सकती है। उत्क्षिप्त का अर्थ उठाना है और विवेक का अर्थ है उठाने के बाद उसका न लगा रहना । भावार्थ यह है कि प्राचाम्ल में ग्राह्य द्रव्य के साथ यदि गुड़ादि विकृति रूप अग्राह्य द्रव्य का स्पर्श भी हो और कुछ नाम मात्र का अंश लगा हुआ भी हो तो व्रत भंग
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