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श्रमण-सूत्र
अभिग्रह-सूत्र अभिग्गहं पच्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं ।
अन्नत्थऽणा भोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ।
भावार्थ अभिग्रह का व्रत ग्रहण करता हूँ, फलतः अशन, पान खादिम और स्वादिम चारों ही आहार का (संकल्पित समय तक) त्याग करता हूँ ।
अनाभोग, सहसाकार, महराराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकारउन चार प्रागारों के सिवा अभिग्रहपूर्ति तक चार पाहार का त्याग करता हूँ।
. विवेचन उपवास आदि तप के बाद अथवा विना उपवास आदि के भी अपने मनमें निश्चित प्रतिज्ञा कर लेना कि अमुक बातों के मिलने पर ही पारणा अर्थात् श्राहार ग्रहण करूँगा, अन्यथा व्रत, बेला, तेला आदि संकल्पित दिनों की अवधि तक पाहार ग्रहण नहीं करूँगा-इस प्रकार की प्रतिज्ञा को अभिग्रह कहते हैं ।
अभिग्रह में जो बातें धारण करनी हों, उन्हें मन में निश्चय कर लेने के बाद ही उपयुक्त पाठ के द्वारा प्रत्याख्यान करना चाहिए । यह न हो कि पहले अभिग्रह का पाठ पढ़ लिया जाय और बाद में धारण किया जाय। यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि अभिग्रह-पूर्ति से पहले अभिग्रह को किसी के श्रागे प्रकट न किया जाय ।।
अभिग्रह की प्रतिज्ञा बड़ी कठिन होती है। अत्यन्त धीर एवं वीर साधक
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